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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६०१ "यद्यपि क्वापि निर्विकल्प समाधिकाले निर्विकारशुद्धात्म रुचिरूपं निश्चय सम्यक्त्वं स्पृशति तथापि प्रचुरेण वहिरंगपदार्थसचिरूपं यव्यवहार सम्यक्त्वं तस्यैव मुख्यता।" भेद व अभेद की अपेक्षा से व्यवहार-निश्चयसम्यक्त्व का यदि कथन किया जाता तो दोनों सम्यक्त्व एक साथ रह सकते हैं, क्योंकि एक ही सम्यक्त्व का दो दृष्टियों से कथन है । निर्विकल्प-वीतराग और सविकल्प-सराग की अपेक्षा से निश्चय तथा व्यवहारसम्यक्त्व का कथन किया जाय तो दोनों सम्यक्त्व साथ नहीं रहते। इस प्रकार इस विषय में अनेकान्त है, एकान्त नहीं है। .. 19-11-64|VIII-IX|... " |10-17-12-64| IX-X | (१) उपचार सम्यग्दर्शन एवं व्यवहार सम्यग्दर्शन में भेद (२) उपचार अथवा व्यवहार मिथ्या नहीं होता (३) उपचरित नय का कथन भी अमिथ्या है शंका-उपचार सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन में क्या अन्तर है ? समाधान-उपचार सम्यग्दर्शन' आगम में सम्यग्दर्शन की ऐसी संज्ञा मेरे देखने में नहीं आई है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पुरुषार्थसिद्धि उपाय में मुख्य और उपचार ऐसे दो प्रकार का मोक्षमार्ग बतलाया गया है। सम्यक्त्त्वचरित्रबोधलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः। मुख्योपचाररूपः प्रापयति परंपदं पुरुषम् ॥ २२२ ॥ सम्यग्दर्शन-चारित्र-ज्ञान लक्षणवाला तथा मुख्य (निश्चय ) और उपचार ( व्यवहार ) रूप ऐसा मोक्षमार्ग आत्मा को परमात्मपद प्राप्त करा देता है। यहाँ पर 'मुख्य' शब्द निश्चय के लिये प्रयोग हआ है और 'उपचार' शब्द व्यवहार के लिये प्रयोग हआ है, क्योंकि श्री अमृतचन्द्राचार्य ने तत्त्वार्थसार में "निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः।" निश्चय और व्यवहार की अपेक्षा मोक्षमार्ग दो प्रकार का है, ऐसा कहा है । निश्चयनय की दृष्टि में न तो बंध है और न मोक्ष है, क्योंकि बंधपूर्वक मोक्ष होता है। जब निश्चयनय में बंध व मोक्ष नहीं तो मोक्षमार्ग भी नहीं है। णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणमओदु जो भावो । एवं भणंति सुद्धा णावा जो सो उ सो चेव ॥६॥ जीवे कम्मं बद्ध पुढे चेदि ववहारणय भणिवं । सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्ध-पुढे हवइ कम्मं ॥१४१॥ समयसार जो ज्ञायक भाव आत्मा है वह अप्रमत्त ( सातवें से चौदहवां गुणस्थान ) भी नहीं है और प्रमत्त ( पहले से छठवाँ गुणस्थान ) भी नहीं है ( अर्थात् गुणस्थानातीत होने से संसारी भी नहीं है ) और जो ज्ञाता (प्रात्मा) है वह तो वही है ऐसा निश्चयनय कहता है । जीव में कर्म बद्ध और स्पृष्ट है यह व्यवहारनय का विषय है। जीव में कर्म बंधे हुए नहीं हैं और अस्पृष्ट हैं यह निश्चयनय का पक्ष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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