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________________ १२३८ [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार । समाधान-द्रव्य जिससमय में जिसपर्यायरूप परिणमन करता है उससमय उसपर्याय से तन्मयता को प्राप्त होने के कारण मात्र उसपर्याय से अभिन्नता को प्राप्त होता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार में कहा भी है परिणमवि जेण दव्वं तत्कालं, तम्मय ति पण्णत्तं । तम्हा धम्मपरिणदो आदा, धम्मो मुरणेयव्यो॥८॥ जीवोपरिणमवि जबा सुहेण, असुहेण वा सुहो असुहो। सुद्धण तवा सुद्धो हवदि हि, परिणामसभावो ॥९॥ इन दो गाथाओं में यह बतलाया गया है कि द्रव्य जिससमय में जिसपर्यायरूप परिणमन करता है उससमय उसपर्यायरूप ही है ऐसा जिनेन्द्र द्वारा कहा गया है। जब मात्मा धर्मपर्यायरूप परिणमन करता है, उससमय धर्मरूप पर्याय से तन्मय होने के कारण प्रात्मा को धर्मरूप जानना चाहिये। जीव जब शुभपर्यायरूप परिणमन करता है तब शुभरूप पर्याय से तन्मय होने के कारण जीव शुभरूप होता है । जीव जब अशुभपर्यायरूप परिणमन करता है तब अशुभपर्याय से तन्मय होने के कारण जीव अशुभरूप है जीव जब शुद्ध पर्यायरूप परिणमन करता है तब शुद्धरूप पर्याय से तन्मय होने के कारण जीव शुद्ध होता है, क्योंकि जीव परिणमनस्वभावी है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य की उपयुक्त गाथाओं से यह स्पष्ट है कि द्रव्य मात्र वर्तमानपर्याय से तन्मय होता है। शेषपर्यायों से उससमय तन्मय नहीं होता है, क्योंकि वर्तमानपर्याय के अतिरिक्त उससमय शेषपर्यायों का प्रध्वंसाभाव व प्रागभाव है अर्थात् अभाव है । इसीलिये श्री वीरसेनाचार्य ने वर्तमानपर्याय को ही अर्थ (ज्ञेय) कहा है। श्री वीरसेनाचार्य के वाक्य निम्नप्रकार हैं "वर्तमानपर्यायाणामेवकिमित्यर्थत्वमिष्यत इति चेत्, न, मर्यते परिच्छिद्यते इति न्यायतस्तत्रार्थत्वोपलम्भात तवनागतातीतपर्यायेष्वपि समानमिति चेत्, न, तग्रहणस्य वर्तमानार्थग्रहणपूर्वकत्वात्।" [ ज० घ• पु० १ पृ० २२ ] जो जाना जाता है उसे अर्थ ( ज्ञेय ) कहते हैं इस व्युत्पत्ति के अनुसार वर्तमानपर्याय में ही अर्थपना (ज्ञेयत्व ) पाया जाता है। यदि यह कहा जाय कि व्युत्पत्ति के अनुसार जिसप्रकार वर्तमानपर्याय में अर्थपना । ज्ञेयत्व ) पाया जाता है उसीप्रकार अनागत और प्रतीतपर्यायों में भी अर्थपना ( ज्ञेयत्व ) संभव है। आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनागत और अतीतपर्यायों का ग्रहण वर्तमान अर्थ के ग्रहणपूर्वक होता है। अर्थात् अतीत और अनागत पर्यायें भूत शक्ति और भविष्यत् शक्ति रूप से वर्तमान अर्थ (ज्ञेय ) में ही विद्यमान रहती हैं। अतः उनका ग्रहण वर्तमान अर्थ (ज्ञेय ) के ग्रहणपूर्वक ही हो सकता है, इसलिये भूत और भविष्यत् पर्यायों को अर्थ ( ज्ञेय ) यह संज्ञा नहीं दी जा सकती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान पर्याय ज्ञेय है किन्तु उसमें अन्य पर्यायें भूत शक्ति और भविष्यत् शक्ति रूप से विद्यमान हैं अतः वे पर्यायें भूत और भविष्यत् शक्ति रूप से जानी जाती हैं । शंका-प्रत्येक समय में द्रव्य पूर्ण है या अपूर्ण ? समाधान -प्रत्येक समयमें द्रव्य पूर्ण भी है और अपूर्ण भी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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