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________________ भ्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १२३६ जिससमय में जो द्रव्य जिसपर्याय रूप परिणमन कर रहा है उससमय वह द्रव्य उस पर्याय से तन्मय है। उसपर्याय से हीनाधिक नहीं है ( प्रवचनसार गा०८) । यदि द्रव्य को पर्याय से अधिक माना जाये तो पर्याय से रहित होने के कारण उस अधिक के द्रव्यत्व का अभाव हो जायगा, क्योंकि पर्याय के बिना द्रव्य नहीं रह सकता ( पंचास्तिकाय गा० १२)। यदि द्रव्य को पर्याय से हीन माना जाय अर्थात पर्याय को द्रव्य से अधिक तो उस अधिकपर्याय का भी, प्राश्रयभूत द्रव्य के अभाव होने से, अभाव हो जायगा ( पंचास्तिकाय गाथा १२ ) । प्रत्येक समय में द्रव्य अपनी पर्याय से तन्मय होने के कारण पूर्ण है। जैसे १० ग्राम सुवर्ण कुण्डलपर्याय में उस कुण्डल पर्याय से तन्मय होने के कारण पूर्ण है और वही १० ग्राम सुवर्ण कड़ेरूप पर्याय में उस कड़ेरूप पर्याय से तन्मय होने के कारण १० ग्राम पूर्ण है, हीनाधिक नहीं है। यदि द्रव्य को प्रत्येक समय अपनी उससमय की पर्याय से सर्वथा तन्मय मानकर सर्वथा पूर्ण मान लिया जाय तो उस पर्याय का अभाव होने पर द्रव्य के भी अभाव का प्रसंग पायगा, किन्तु द्रव्य का प्रभाव होता नहीं है, क्योंकि उसपर्याय का व्यय होने पर द्रव्य अन्य नवीन पर्याय रूप परिणम जायगा और उस नवीन पर्याय से तम्मय हो जायगा। इसलिये द्रव्य का लक्षण निम्नप्रकार कहा गया है"द्रवति द्रोष्यति अदुद्र व स्वगुण पर्यायान इति द्रध्यम् ।" ( स्वा० का० अ० गा० २४० टीका) जो अपने गुण और पर्यायों को प्राप्त होता है वह द्रव्य है। एयववियम्मि जे अस्थपज्जया वयणपज्जया वा वि । तीदाणागदभूवा तावइयं तं हवइ बव्वं ॥१०८ ॥ (न. ध० पु०१पृ० २५३ ) एक द्रव्य में प्रतीत, अनागत और वर्तमानरूप जितनी अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय होती हैं, तत् प्रमाण वह द्रव्य होता है। प्रत्येकसमय में मात्र वर्तमानपर्याय सद्भावरूप विद्यमान रहती हैं और शेषपर्यायें असद्भावरूप अविद्यमान रहतो हैं मतः प्रत्येक समय में द्रव्य कथंचित् अपूर्ण है। शंका-कुछ जैन भाई द्रव्य में वेकालिक पर्यायों को सद्भावरूप विद्यमानता मानते हैं और इसप्रकार प्रत्येक समय में द्रव्य को सर्वथा पूर्ण मानते हैं । क्या यह मान्यता ठीक नहीं है ? समाधान-द्रव्य में त्रैकालिक पर्यायों की सद्भावरूप विद्यमानता जो भी मानते हैं वे जैनसिद्धान्त के मानने वाले नहीं हैं, किन्तु सांख्यमत के मानने वाले हैं । जैन सिद्धान्त में तो पूर्व पर्याय का व्यय और उत्तर पर्याय का उत्पाद बतलाया गया है। जदि दवे पज्जाया विविज्जमाणा तिरोहिदा सति । ता उत्पत्ति विहला पडिपिहिदे देवदत्ते व ॥२४३॥ ( स्वा० का० अ० ) टीका-अथ सांख्यादयः एवं वदन्ति । द्रव्ये जीवादिपवायें सर्वे पर्यायाः तिरोहिताः आच्छादिताः विद्यमानाः सन्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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