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________________ १०० ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार ! जहाँ पर सरागसम्यग्दर्शन को अथवा सविकल्पसम्यग्दर्शन को व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा है और वीतरागसम्यग्दर्शन को अथवा निर्विकल्पसम्यग्दर्शन को निश्चयसम्यग्दर्शन कहा है वहां पर निश्चय और व्यवहार दोनों सम्यग्दर्शन साथ नहीं रह सकते। "द्विधा सम्यक्त्वं भण्यते सरागवीतराग-भेदेन । प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सरागसम्यक्त्वं भण्यते, तदेव व्यवहारसम्यक्त्वमिति तस्य विषयभूतानि षड्दव्याणीति । वीतरागसम्यक्त्वं निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागचारित्राविनाभूतं तदेव निश्चयसम्यक्त्वमिति ।" [ परमात्म-प्रकाश अ० २ गा० १७ टीका ] अर्थ-सराग और वीतराग के भेद से सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा आस्तिक्य को प्रगटता जिसका लक्षण है वह सरागसम्यग्दर्शन है, वही व्यवहारसम्यग्दर्शन है। उसका विषय छहद्रव्य हैं। निजशुद्धात्मानुभूति जिसका लक्षण है वह वीतरागसम्यग्दर्शन है और वह वीतरागचारित्र के साथ ही रहता है उसको निश्चयसम्यग्दर्शन कहा है। श्री राजवातिक अध्याय १ सूत्र २ को टीका में भी कहा है 'तद द्विविधं सरागवीतरागविकल्पात् ॥ २९॥ प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम् ॥३०॥ आत्मविशद्धिमात्रमितरत् ॥३१॥ सप्तानां कर्म प्रकृतीनाम् आत्यन्तिकेऽपगमे सत्यात्मविशुद्धिमात्रमितरद वीतरागसम्यक्त्वमित्युच्यते । अत्र पूर्व भवति साधनं, उत्तरं साधनं साध्यं च ।' अर्थ-वह सम्यग्दर्शन सराग वीतराग के भेद से दो प्रकार का है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य की प्रगटता है लक्षण जिसका वह सरागसम्यग्दर्शन है। प्रात्मविशुद्धिमात्र वीतरागसम्यग्दर्शन है। सातप्रकृतियों के अत्यन्त नाश होने पर जो आत्म-विशुद्धि होती है वह आत्मविशुद्धिमात्र वीतरागसम्यक्त्व कहा गया है। सरागसम्यक्त्व साधनरूप है। वीतरागसम्यग्दर्शन साधन और साध्यरूप है। समयसार गाथा १३ की टीका में भी श्री जयसेनाचार्य ने कहा है "आर्तरोवपरित्यागलक्षणनिर्विकल्पसामायिकस्थितानां यच्छुद्धात्मरूपस्य वर्शनमनुभवनमवलोकनमुपलब्धिः नि प्रतीतिः ख्यातिरनुभुतिस्तदेव निश्चयनयेन निश्चयचारित्राविनामावि निश्चयसम्यक्त्वं वीतरागसम्यक्त्वं भव्यते । तदेव च गुणगुण्यभेदरूपनिश्चयनयेन शुद्धात्मरूपं भवति । निश्चयनयेन तु स्वकीयशुद्धपरिणाम एव सम्यत्वमिति ।" अर्थ-प्रातरौद्र परिणामों के त्यागरूप लक्षण है जिसका, ऐसी निर्विकल्पसामायिक में स्थित जीव के जो शादात्मरूप का दर्शन, अनुभवन, अवलोकन, उपलब्धि, संवित्ति, प्रतीति, ख्याति, अनुभूति होती है वही निश्चयनय चियचारित्र का अविनाभावी निश्चयसम्यक्त्व-वीतरागसम्यक्त्व कहा गया है। वही गुणगुणी के अभेदरूप निश्चयनय से शुद्धात्मरूप है । निश्चयनय से अपने शुद्ध परिणाम ही सम्यक्त्व है। श्री वृहद् व्यसंग्रह गाथा २२ की टीका में भी कहा है"यत्पुनस्तदविनाभूतं तनिश्चयसम्यक्त्वं वीतरागसम्यक्त्वं चेति भव्यते ।" अर्थ-उस वीतरागचारित्र का अविनाभूत वीतरागसम्यक्त्व ही निश्चयसम्यक्त्व कहा गया है। रायचन्द-पंथमाला से प्रकाशित पंचास्तिकाय पृ० १६९ पर कहा है कि निर्विकल्पसमाधि काल में निश्चयसम्यक्त्व तो कभी होता है, अधिकतर तो व्यवहारसम्यक्त्व रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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