SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११७८ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : समाधान -आषंग्रन्थों में वभाविकगुण या वैभाविकद्रव्य शक्ति का कथन नहीं है, यदि अनार्ष ग्रन्थों में ऐसा कथन हो तो वह उससमय तक माननीय नहीं हो सकता जब तक कि उसका समर्थन किसी पार्षवाक्य के द्वारा न हो जावे। प्रनार्षग्रन्थ में यदि एक भी कथन सिद्धांतविरुद्ध पाया जाता है तो उसके अन्य कथन को भी श्रद्धाष्टि से नहीं देखा जा सकता, जब तक यह सिद्ध न हो जावे कि वह कथन प्रार्षानुकूल है। वैभाविकगण तो हो नहीं सकता है, क्योंकि द्रव्य के शुद्धस्वभाव के अनुसार द्रव्य का परिणमन होने पर वैभाविकगुण निरर्थक हो जायगा। वैभाविकद्रव्यशक्ति भी नहीं हो सकती है किन्तु अशुद्धद्रव्य की पर्यायशक्ति हो सकती है। द्रव्य के शुद्ध हो जाने पर उस वभाविकपर्यायशक्ति का अभाव हो जाता है। प्रात्मा में क्रियावतीशक्ति नहीं है, किन्तु निष्क्रियत्वशक्ति है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने समयसार के अन्त में ४७ शक्तियों का कथन किया है उसमें २३ वी निष्क्रियत्वशक्ति है। निष्क्रियत्वशक्ति का स्वरूप इसप्रकार है 'सकलकर्मोपरमप्रवृत्तात्मप्रदेशनष्पंद्यरूपा निष्क्रियत्वशक्तिः।' समस्त कर्मों के उपशमसे प्रवृत्त आत्मप्रदेशों की निस्पन्दता स्वरूप निष्क्रियत्व शक्ति है। जब तक शरीरनामकर्मोदय रहता है उसके निमित्त इस निष्क्रियत्वशक्ति का क्रियारूप (प्रदेश परिस्पन्दरूप ) विभावपरिणमन होता है । कर्मों का क्षय हो जाने पर निष्क्रियत्वशक्ति का निस्पन्दता स्वाभाविकस्वरूप हो जाता है । यदि श्री अमृतचन्द्राचार्य को वैभाविकद्रव्य शक्ति की मान्यता इष्ट होती तो ४७ शक्तियों में वैभाविकशक्ति का भी अवश्य कथन करते । इससे स्पष्ट है कि वैभाविकशक्ति की मान्यता श्री अमृतचन्द्राचार्य को इष्ट न थी। अनन्त पुद्गलपरमाणुओं का परस्पर बंध से घटपर्याय उत्पन्न होने पर उसमें जलधारणरूप पर्यायशक्ति उत्पन्न होती है, किन्तु घट के नष्ट होने पर जलधारणरूप पर्यायशक्ति भी नष्ट हो जाती है। उसीप्रकार जीव और पूगल के परस्परबंध से विभावरूप परिणमनशक्ति है, मुक्त हो जाने पर विभावपरिणमनरूप वैभाविकपर्यायशक्ति का भी अभाव हो जायगा। -. ग. 6-1-72/VII/.......... सिद्धों में भोक्तृत्व का सद्भाव कैसे ? शंका-त. रा. वा. अध्याय २ सूत्र ७ वार्तिक १३ में 'भोक्तृत्व' को जोव का साधारण पारिणामिकभाव कहा गया है। इस भाव का सद्भाव सिद्धों में कैसे सम्भव है ? समाधान-सिद्ध भगवान प्रतिसमय अव्याबाधसुख को भोगते हैं इसलिये सिद्धों में भोक्तृत्व पारिणामिकभाव है । भव्यसिद्धिक पारिणामिकभाव का तो, साक्षाद सिद्ध हो जाने पर, अभाव हो जाता है, क्योंकि वे अब होने वाले सिद्ध नहीं हैं, किन्तु सिद्ध हो चुके हैं। -पताचार/ज. ला. जन; भीण्डर साधारण संसारी जीव के अस्तित्व वस्तुत्वादि गुण अशुद्ध परिणमन करते हैं शंका-मिण्यादृष्टि अर्थात साधारण संसारीजीव के निम्नगुण क्या शुद्धरूप परिणमन करते हैं—(१) अस्तित्व अर्थात सत्ता गुण, (२) वस्तुत्व, (३) प्रदेशत्व, (४) अगुरुलघुत्व, (५) प्रमेयस्व, (६) अकार्य-कारणत्व, (७) नित्यत्व, (८) गुणस्व? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy