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________________ व्यक्तित्व प्रोर कृतित्व ] समाधान- गुण का लक्षण इस प्रकार है "व्याश्रया निर्गुणा गुणा: " मोक्षशास्त्र ५ / ४१ जो द्रव्य के आश्रय हों और स्वयं निर्गुण हों वे गुण हैं । पर्यायाश्रित गुण नहीं होते, क्योंकि पर्याय कादाचित्क होती है । तत्त्वार्थवृत्ति में कहा भी है "ये नित्यं द्रव्यमाश्रित्य वर्तन्ते त एव गुणा भवन्ति न तु पर्यायाश्रयगुणा भवन्ति, पर्यायाषिताः गुणाः कादाचित्कः कदाचित् भवा वर्तन्ते इति ।" इसका भाव ऊपर कहा गया है । (१) अस्तित्व अर्थात् सद्गुण का लक्षण इसप्रकार है- "उत्पादव्ययश्रव्ययुक्तं सत् ॥ ५।२९ ॥ संसारी चतुर्गति में भ्रमण के कारण विकारीपर्यायों का उत्पाद व व्यय हो रहा है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा भी है [ ११७९ णरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विभावमिति भणिवा । कम्मोपाधि विवज्जिय पज्जाया ते सहावमिति भणिदा || १५ || नियमसार मनुष्य, नारक, तियंच, देव ये विभावपर्यायें हैं तथा कर्म रहित जो पर्याय है वह स्वभावपर्याय है यदि कहा जाय कि पर्याय अशुद्ध है किन्तु द्रव्य तो शुद्ध है सो भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि द्रव्य ने ही तो अशुद्धपर्यायरूप परिणमन किया है, और उससमय वह द्रव्य उस अशुद्धपर्याय से तन्मय है । परिणमदि जेण दव्वं, तक्कालं तम्मयं त्ति पण्णत्तं । तम्हा धम्मपरिणदो, आदा धम्मो मुणेयध्वो ॥ ८ ॥ प्रवचनसार द्रव्य जिससमय में जिसपर्याय से परिणमन करता है, उससमय वह द्रव्य उसपर्यायरूप है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है । इसलिये धर्मपरिणत श्रात्मा को धर्म जानना चाहिये । अतः संसारी जीव का सत्तागुण विभावरूप हो रहा है । (२) वस्तुत्वगुण का लक्षण इसप्रकार है- "वसन्ति द्रव्यगुणपर्याया अस्मिन्निति वस्तु ।” स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. २४२ की टीका । जिसमें द्रव्यगुणपर्याय बसते हैं ( रहते हैं ) वह वस्तु है । संसारी जीव का द्रव्य, गुण और पर्याय तीनों विकारी अर्थात् अशुद्ध हो रहे हैं अतः वस्तुस्वगुण भी अशुद्ध परिणमन कर रहा है । (३) प्रवेशत्वगुण - संसारीजीव के प्रदेशों में निरन्तर संकोच विकोच होता रहता है। कभी संसारीजीव अधिकक्षेत्र में व्याप्त होकर रहता है, कभी स्तोकक्षेत्र व्याप्त कर रहता है अतः प्रदेशत्वगुण अशुद्ध हो रहा है, क्योंकि 'प्रदेशत्वं क्षेत्रत्वं' ऐसा श्री देवसेनाचार्य ने आलापपद्धति में कहा है । Jain Education International (४) अगुरुलघुत्व - अगुरुलघुत्वगुण का आविर्भाव सिद्धों में होता है, संसारावस्था में तो कर्मोदय के द्वारा अगुरुलघुत्व होता है । कहा भी है- "मुक्तजीवानां कथमिति चेत् ? अनाविकर्मनो कर्म संबन्धानां कर्मोदयकृतमगुरुलघुस्वम्, तत्यन्त विनिवृत्तौ तु स्वाभाविकमाविर्भवति ।" [ रा० वा० ८।११।१२ ] अतः संसारीजीव के अगुरुलघुत्व - गुण भी अशुद्ध हो रहा है । (५) प्रमेयत्व - मिथ्यादृष्टिजीव को स्व का यथार्थं बोध नहीं होता है अतः स्वज्ञान का विषय न होने से यद्यपि प्रमेयत्वगुण को अशुद्ध कहा जा सकता तथापि स्वाभाविकज्ञान का विषय होने की अपेक्षा अशुद्ध नहीं भी कहा जा सकता है। मिध्यादृष्टिजीव अशुद्ध होने के कारण अशुद्धरूप ही प्रमेय होगा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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