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________________ [ ११६९ व्यक्तित्व धौर कृतित्व ] नहीं होता। ये प्रत्यय गुरण ( गुणस्थान ) नाम वाले हैं, क्योंकि ये कर्म को करते हैं, इसकारण जीव तो कर्म का कर्ता नहीं है । ये गुण ( गुणस्थान ) ही कर्मों को करते हैं । जैसे जीव से उपयोग अनन्य ( एकरूप ) है । उसी तरह यदि क्रोध भी जीव से अनन्य हो जाय अर्थात् एकरूप हो जाय तो इसतरह जीव भोर अजीव के एकपना प्राप्त हुआ। ऐसा होने से इस लोक में जो जीव है वही नियम से वैसा ही धजीव हुआ। ऐसे दोनों के एकस्व होने में यह दोष प्राप्त हुआ । इसी तरह प्रत्यय, नोकमं और कर्म इन दोनों में भी यही दोष जानना । अतः क्रोध अन्य है और उपयोगस्वरूप आत्मा अन्य है, जिस तरह क्रोध है उसीतरह प्रत्यय ( मिथ्यात्व अविरति कषाय व योग ), कर्म और नोकर्म से भी धारमा से अन्य है। यहाँ पर श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने योगप्रत्यय को भी अचेतन कहा है, क्योंकि पुद्गल कमदय से हुआ है और यह भी कहा कि यदि उपयोग के समान योग प्रत्यय को भी जीव से अनन्य मान लिया जाय तो जीव और प्रजीव के एकपने का दूषण आ जायगा । श्रतः योगप्रत्यय आत्मा से अन्य ही है। " योग पुद्गलकर्मोदयकृत प्रौपराधिकभाव है और समयसार गाथा ५७ में जीव का और औपाधिकभावों या सम्बन्ध जल और दूध के समान बतलाया है और यह भी कहा है कि ये जीव के नहीं है क्योंकि जीव उपयोग गुणकर अधिक है। जल और दूध के सम्बन्ध के समान जीव और योगप्रत्यय का सम्बन्ध है इस धपेक्षा से योग जीव से कथंचित् अनम्य है तथा चिदाभास है किंतु योग का और जीव का कालिक तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है। ऐसा श्री कुन्दकुन्दाचार्य का कहना है — जे. ग. 14-2-66/1X / र. ला. जैन अवगाहनगुण शंका- अवगाहनशक्ति आकाश में है या और द्रव्यों में भी है। अगर केवल आकाश में है तो किस प्रकार से ? यदि अन्य द्रव्यों में भी है तो आकाश को स्थान देनेवाला क्यों बताया गया है ? अथवा आकाश का लक्षण अवकाशदान क्यों कहा है ? समाधान - आकाश का लक्षण अवकाश देना है। कहा भी है- अवकासदाणजोगं जीवादीणं वियाण आयासं - वृ० द्र० सं० गाथा १९ जो जीवादि द्रव्यों को अवकाश देने वाला है उसे जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा हुआ आकाश द्रव्य जानो । अन्य द्रव्यों में द्रव्यों को अवकाश देने की शक्ति नहीं है। यदि कहा जावे कि 'धर्मद्रव्य' तथा 'अधमं द्रव्य' में अन्य समस्त द्रव्यों को अवकाश देने की शक्ति है किंतु 'अलोकाकाश' को अवकाश देने की शक्ति 'धर्मद्रव्य' तथा 'अधर्मद्रव्य' में भी नहीं है । अतः सर्वद्रव्यों को अवकाशदान श्राकाश का असाधारणगुण है । प्रवचनसार गाथा १३३ को टीका में श्री अमृतचन्द्रस्वामी ने इसप्रकार कहा है- विशेषगुणो हि युगपत्सर्वद्रव्याणां साधारणावगाहहेतुत्वमाकाशस्य तककालमेव सकलद्रव्यसाधारणावगाहसम्पादन] मसबंगत त्या दिव शेषद्रव्याणामसम्भवदाकाशमधिगमयति युगपत् सर्वद्रव्यों के साधारण अवगाह का हेतुत्व आकाश का विशेषगुण है। एक काल में समस्त द्रथ्यों को साधारण अवगाह का सम्पादन ( अवगाह हेतुस्वरूप लिंग ) आकाश को बतलाता है, क्योंकि शेषद्रव्यों के सर्वगत न होने से ही उनके वह ( भवगाह गुण ) सम्भव नहीं है। - जै. सं. 14-3-57 / / ला. रा. दा. कैराना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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