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________________ १९६८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : "विरियंतराइयस्स सध्वधादिफयाणमुदयाभावेण तेसि संतोवसमेण देसघादिफयाणमदएण समुभवादो लद्धखओवसमववएसं विरियं वदि तं विरियं पप्प जेण जीवपदेसाणं संकोचविकोचो वड्ढदि तेण जोगो खओवसमिओ ति वृत्तो। विरियंतराइयखओवसम जणिदबलवडिहाणीहितो जदि जीवपदेसपरिप्फंदस्स वडिहाणीओ होंति तो खीणंतराइयम्मि सिद्ध जोगबहत्तं पसज्जदे ? ण खोवसमियबलादो खइयस्स बलस्स पुधत्तदंसणादो। ण च खओवसमियबलवडि-हाणी-हितो वडिहाणीणं गच्छमाणो जीवपदेसपरिप्फंदो खइयबलादो वडिहाणीणं गच्छदि, अइप्पसंगादो। जदि जोगो वीरियंतराइय खओवसमजणिदो तो सजोगिम्हि जोगाभावो पसज्जवे ? ण. उवयारेणख. ओवस मियं भावं पत्तस्स ओदइयस्स जोगस्स तस्थाभावविरोहादो।" (ध. पु. ७ पृ. ७५-७६ ) अर्थ-वीर्यान्तरायकर्म के सर्वघातीस्पर्धकों के उदयाभाव से व उन्हीं स्पर्धको के सत्त्वोपशम से तथा देशघातीस्पर्घकों के उदय से उत्पन्न होने के कारण क्षायोपशमिक कहलाने वाला वीर्य (बल) बढ़ता है तब उस वीयं को पाकर प्रर्थात् उस वीर्य के कारण चूकि जीवप्रदेशों का संकोच-विकोच बढ़ता है, इसलिये योग क्षायोपशमिक कहा गया है। यहां पर यह शंका होती है-यदि वीर्यान्त राय के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए बल की वृद्धि और हानि से प्रदेशों के परिस्पंद की वृद्धि और हानि होती है, तब तो जिसके अन्तरायकर्म क्षीण हो गया है ऐसे सिद्ध जीव में योग की बहलता का प्रसंग आता है ? प्राचार्य कहते हैं-सिद्ध जीव में योग की बहुलता का प्रसंग नहीं आता है, क्योंकि क्षायोपशमिकबल से क्षायिकबल निरन्तर भिन्न देखा जाता है, क्षायोपशमिकबल की वृद्धि-हानि से वृद्धिहानि को प्राप्त होने वाला जीवप्रदेशों का परिस्पन्द क्षायिकबल से वृद्धि-हानि को प्राप्त नहीं होता; क्योंकि ऐसा मानने से तो प्रतिप्रसंग दोष पा जायगा। पूनः शंका-यदि योग वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है तो सयोगिकेवली में योग के अभाव का प्रसंग आता है, आचार्य कहते हैं कि सयोगिकेवली में योग के अभाव का प्रसंग भी नहीं आता है। क्योंकि योग में क्षायोपशमिकभाव तो उपचार से माना गया है, असल में तो योग औदयिकभाव ही है और प्रौदयिक योग का सयोगिकेवली में अभाव मानने में विरोध आता है। षट्खण्डागम में वीर्यान्त रायकर्म के क्षयोपशम के कारण ही योग को क्षायोपश मिकभाव कहा गया है, क्योंकि वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से वीर्य में हानि-वृद्धि होती है और वीर्य की हानि-वृद्धि से योग में हानि वृद्धि होती है. इसप्रकार योग और क्षायोपशमिकवीर्य में कार्य कारणसम्बन्ध है। -ौ. ग. 16-7-70/VII/ रो. ला. योग जीव से कथंचित् अनन्य है, कथंचित् अन्य शंका-२३ दिसम्बर १९६५ के जैनसन्देश में समयसार गाथा १६४ के आधार पर यह कहा गया कि योग को द्रव्यप्रत्ययरूप और भावप्रत्ययरूप से अचेतन और चेतन कहा है। इसलिये योग जीवरूप होने से जीव की निजशक्ति है। समाधान-समयसार गाथा १६४ में 'मिथ्यात्व, अविरति, कषाय ये चेतन और अचेतन के भेद से दो प्रकार के हैं और जीव के अनन्य परिणाम हैं' यह कहा गया है। परन्तु यहाँ पर यह विचारणीय है कि जिसप्रकार उपयोग जीव का निजपरिणाम होने से अनन्यपरिणाम है क्या उसी प्रकार ये प्रत्यय भी जीव के अनन्य परिणाम हैं। श्री कुन्दकुन्दस्वामी ने इसका विवेचन गाथा १०९ से ११५ तक किया है जो इस प्रकार है प्रत्यय अर्थात् बंध के कारण जो प्रास्रव वे सामान्य से चार बंध के कर्ता कहे हैं वे मिथ्यात्व अविरत कषाय और योग जानने और उनके फिर तेरह भेद अर्थात् तेरह गुणस्थान मिथ्यावष्टि को आदि लेकर सयोगके वली तक हैं । ये निश्चय ही अचेतन हैं, क्योकि पुद्गलकर्म के उदय से हुए हैं । वे कर्म को करते हैं, उनका भोक्ता आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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