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________________ ११७० ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ! शंका-सिद्धों में भी अवगाहन देने की शक्ति है, क्योंकि एक सिद्ध में अनन्त सिद्ध हैं, ऐसा शास्त्रों में कथन पाया जाता है। समाधान-सिद्धों में भी अवगाहन-दान शक्ति है । जहाँ पर एक सिद्ध भगवान हैं, वहां पर अन्य छहद्रव्य भी हैं। किन्त सिद्धों में अन्य समस्त द्रव्यों को अवगाहनदान की शक्ति नहीं है अतः सिदों का प्रवगाहनदान प्रसाधारणगुण नहीं है। -जं. सं. 14-3-57/ |ला. रा. दा. कराना सिद्धों व निगोदजीवों में अवगाहना का हेतु शंका-सिद्ध भगवान के आत्मप्रदेशों में अवगाहनगुण होने के कारण अनन्त सिद्ध समा जाते हैं. इसीतरह निगोदजीव के शरीर में अनन्त निगोदिया रहते हैं क्या उसमें भी अवगाहनगुण कारण हैं या दोनों में कौन से कारण हैं ? सिद्धभगवान के और निगोदिया के अवगाहनगुण में क्या अन्तर है ? समाधान-नामकर्म के क्षय से स्वाभाविक अवगाहन गुण सिद्धों में होता है। संसारावस्था में शरीरनामकर्मोदय के कारण वह अवगाहन गुण आच्छादित रहता है। साधारणनामकर्मोदय के कारण एक निगोदशरीर में अनन्तानन्त जीव रहते हैं । कहा भी है'बहूनामात्मनामुपभोगहेतुत्वेन साधारणं शरीरं यतो भवति तत् साधारणशरीरनाम ॥' स. सि. ८-११ अर्थात-एक साधारणशरीर का बहुत जीव उपभोग करते हैं। जिस कर्म के निमित्त से यह साधारण शरीर होता है वह साधारणशरीरनामकर्म है। 'नि नियतां गां भूमि क्षेत्रं दवातीति अनन्तानन्तजीवानाम् इति निगोवाः साधारणजन्तवः।' -स्वा० का० गा० १५० की टीका अर्थ-जो एक क्षेत्र में अनन्तानन्त जीवों को अवगाहन देते हैं उन्हें निगोदिया अथवा साधारणजीव कहते हैं। इसप्रकार सिद्धों में स्वाभाविक अवगाहनगुण के कारण एकक्षेत्र में अनन्तानन्त सिद्ध रहते हैं और निगोदशरीर में साधारणशरीर नामकर्मोदय के कारण एकक्षेत्र में अनंतानंत जीव रहते है। -जें. ग. 8-2-68/IX| ध. ला. सेठी एक द्रव्य में अगुरुलघु गुण की संख्या शंका- प्रत्येक द्रध्य में कितने अगुरुलघुगुण होते हैं ? क्या किसी द्रव्य में अनन्त अगुरुलघुगुण भी होते हैं ? समाधान-प्रत्येक द्रव्य में एक ही प्रगुरुलघुगुण होता है। पंचास्तिकाय में जो अनन्त अगुरुलघुगुण लिखे हैं वहाँ गुण से अभिप्राय अविभागप्रतिच्छेद का है। तत्त्वार्थसूत्र में भी द्वयधिकाविगुणानां तु [ त० सू० ॥३६ ] इस सूत्र में 'गुण' शब्द पाया है वह अविभागप्रतिच्छेद के लिये ही आया है। -पत्राचार/17-2-80/न. ला. गेन, भीण्डर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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