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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ११६७ आकुलता की उत्पादक इच्छा है और इच्छा चारित्रमोहनीय कर्मोदय से उत्पन्न होती है । अत: दिगम्बर जैनाचार्यों ने मोहनीय कर्म के क्षय से सुख की उत्पत्ति होनी बतलाई है - हम्बोधो परमौ तदावृतिहतेः, सौख्यं च मोहक्षयात् । वीर्यं विघ्नविघाततोऽप्रतिहतं मूर्तिनं नामक्षतेः ॥ आयुर्नाशवान जन्ममरणे गोत्रे न गोत्रं विना । सिद्धानां न च वेदनीयविरहा दुःखं सुखं चाक्षजम् ||८|६|| पद्म. पंच. अर्थ - सिद्धों के दर्शनावरण के क्षय से उत्कृष्ट अर्थात् केवलदर्शन, ज्ञानावरण के क्षय से उत्कृष्ट अर्थात् केवलज्ञान, मोहनीयकर्म के क्षय से सुख, अन्तराय के विनाश से अनन्तवीर्य, नामकर्म के क्षय से मूर्तिका प्रभाव होकर अमूर्तत्व, प्रयुकर्म के नष्ट हो जाने से जन्म-मरण का अभाव होकर अवगाहनत्व, गोत्र कर्म के क्षीण हो जाने पर उच्च एवं नीच का प्रभाव होकर अगुरुलघुत्व, तथा वेदनीय कर्म के नष्ट हो जाने से इंद्रियजन्य सुख दुःख का अभाव होकर अन्याबाध गुण प्रकट होता है । श्री तत्त्वार्थवृत्ति अध्याय ९ सूत्र ४४ को टीका में भी "तत्सुखं मोहक्षयात् ।" शब्दों द्वारा यह बतलाया है कि निर्वाणसुख मोह के क्षय से उत्पन्न होता है । इन वाक्यों से सिद्ध होता है कि मोहनीयकर्म के क्षय से आकुलता का अभाव होता है और अनाकुलता लक्षणवाला सुख उत्पन्न होता है । इसलिये मोहनीय कर्म सुखगुण का प्रतिपक्षी है । श्रनन्तज्ञान और अनन्तवीर्यं प्रगट हो जाने पर अनाकुलतारूप सुख प्रनन्तसुख संज्ञा को प्राप्त हो जाता है । और वेदनीयकर्म के क्षय हो जाने पर इस सुख की अव्यावाध संज्ञा जाती है । इसीलिये कुछ आचार्यों ने वेदनीयकर्म के क्षय से सुखगुण बतलाया है । जस्सोदएण जीवो सुहं च दुक्खं व दुविहमणुहवइ । Restauraएण तु जायदि अध्यश्यणंतसुहो ॥६॥ ध. पु. ७ पृ. १४ अर्थ - जिस वेदनीयकर्म के उदय से जीव सुख और दुख इस दो प्रकार की अवस्था का अनुभव करता है, उसी कर्म के क्षय से आत्मस्थ अनन्तसुख उत्पन्न होता है । इसप्रकार दि० जैन आचार्यों ने तो मोहनीयकमं अथवा वेदनीयकर्म को आत्मस्थ सुख का प्रतिपक्षी बतलाया है । Jain Education International - जै. ग. 11-4-66/ IX / ट. ला. प्तेन मेरठ १. वीर्य गुण से योग में कारण कार्य सम्बन्ध है २. परमार्थतः योग श्रदयिक है और उपचारतः क्षायोपशमिक शंका- वीर्य आत्मा का स्वतन्त्रगुण है तब उसका योग से क्या सम्बन्ध है ? समाधान - क्षायोपशमिकवीर्य की वृद्धि से योग में वृद्धि होती है, अतः क्षायोपशमिकवीर्य व योग में कारण- कार्य सम्बन्ध है । कहा भी है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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