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________________ ११६६ ] [प० रतनचन्द जैन मुख्तार। 'स्वभावाः कथ्यन्ते । अस्तिस्वभावःनास्तिस्वभावः नित्यस्वभावः अनित्यस्वभावः एकस्वभावः अनेकस्वभावः भेदस्वभावः अभेदस्वभावः भव्यस्वभावः अभव्यस्वभावः परमस्वभावः द्रव्याणामेकादश सामान्यस्वभावः। चेतन. स्वभावः अचेतनस्वभावः मूर्तस्वभावः अमूर्तस्वभावः एकप्रदेशस्वभावः अनेकप्रदेशस्वभावःविभावस्वभावः शुद्धस्वभावः अशुद्धस्वभावः उपचरितस्वभावः एते द्रव्याणां दश विशेषस्वभावाः । जीव पुद्गलयोरेकविंशतिः।' आलापपद्धति यहाँ पर चेतनस्वभाव, अचेतनस्वभाव, मूर्तस्वभाव, अमूर्तस्वभाव ये चारों स्वभाव भी जीव और पुद्गल दोनों में होते हैं ऐसा कहा गया है। अर्थात् जीव में अचेतनस्वभाव व मूर्तस्वभाव तो किसी अपेक्षा संभव है, किंतु अचेतनगुण और मूर्तगुण जीव में नहीं होते हैं। इसी प्रकार पुद्गल में किसी अपेक्षा चेतन व अमूर्त स्वभाव सम्भव है किन्तु चेतनगुण व मूर्तगुण सम्भव नहीं है। बंध की अपेक्षा जीव में अज्ञान औदयिक भावरूप अचेतन स्वभाव है और स्थूल परिणमन रूप मूर्तस्वभाव है। द्रव्य में पर चतुष्टय की अपेक्षा से नास्ति स्वभाव है। पर चतुष्टय अनन्त हैं इसलिये नास्तिस्वभाव भी अनन्त प्रकार का हो जाता है। द्रव्य में नास्ति स्वभाव पर की अपेक्षा से माना गया है अतः इसका गणों में उल्लेख नहीं किया गया है । किन्तु नास्ति-स्वभाव द्रव्य में सदा रहता है इस अपेक्षा से इसको गुण भी कह दिया जाता है। जैसे प्रवचनसार गाथा ९५ को टीका में कहा गया है "गुणाः विस्तारविशेषाः, ते द्विविधाः सामान्य विशेषात्मकत्वात् । तत्रास्तित्वं नास्तित्वमेकत्वमन्यत्वं द्रव्यत्वं पर्यायत्वं सर्वगतत्वमसर्वगतत्वं सप्रदेशत्वमप्रदेशत्वं मूर्तत्वममूर्तत्वं सक्रियत्वमक्रियत्वं चेतनत्वमचेतनत्वं कर्तृत्वमकर्तृत्वं भोक्तृत्वमभोक्तृत्वमगुरुलघुत्वं चेत्यादयः सामान्यगुणाः । अवगाहहेतुत्वं गतिनिमित्तता स्थितिकारणत्वे वर्तनायतनत्वं रूपाविमत्ता चेतनत्वमित्यादयो विशेषगुणाः।" यहां पर भी श्री अमृतचन्द्राचार्य ने 'नास्तित्व' को सामान्यगुण तो कहा है, किन्तु प्रतिजीवी गुण नहीं कहा है। नास्तिस्वभाव का लक्षण निम्नप्रकार कहा गया है"परस्वरूपेणाभावान् नास्तिस्वभावः" ( आलाप पद्धति ) परस्वरूप से नहीं होना नास्तिस्वभाव है। नास्तिस्वभाव सामान्यस्वभाव होने से सब द्रव्यों में पाया जाता है, क्योंकि कोई भी द्रव्य परद्रव्यस्वरूप नहीं परिणमता । सिद्ध भी द्रव्य हैं और वे भी परद्रव्यस्वरूप नहीं होते, अत: उनमें भी नास्ति स्वभाव है। -ज.ग. 19-12-68/VIII/ मगनमाला सुख गुण का प्रावारक कर्म मोहनीय अथवा वेदनीय है शंका-फरवरी १९६६ के सन्मतिसंदेश में श्री ५० फूलचन्दजी ने लिखा है कि "कोई एक कर्म सुख गुण का प्रतिपक्षी स्वीकार नहीं किया गया है ।" इस पर प्रश्न है कि सुखगुण का घातक क्या कोई एक कर्म नहीं है ? समाधान-सुख का लक्षण अनाकुलता है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने प्रवचनसार गाथा १८ को टीका में 'अनाकुलत्वलक्षणं सौख्यं' शब्दों द्वारा सुख का लक्षण अनाकुलता बतलाया है। गाथा २६ व ५९ की टीका में भी अनाकुलता को सुख का लक्षण कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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