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________________ ११४८ ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार । तिपयारो सो अप्पा परमंतर वाहिरो दु देहीणं । तत्थ परो झाइज्जइ अंतो बाएण चयहि बहिरप्प ॥ ४ ॥ ( मोक्षप्राभृत ) बहिरन्तः परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु । उपेयात्तत्र परमं मध्योपायात्त बहिस्त्यजेत् ॥ ४ ॥ ( समाधितंत्र ) सर्वप्राणियों में बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इसप्रकार तीनप्रकार की आत्मा है। प्रात्मा के उन तीन भेदों। पर्यायों ) में से बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के उपाय से परमात्मा अवस्था का ध्यान करो। उस परमात्मारूप पर्याय के ध्यान से जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है। तं सव्वस्थवरिटुं, इठें अमरासुरप्पहाणेहि । ये सद्दति जीवा वेसि दुक्खाणि खोयंति ॥ १९.१॥ प्रवचनसार "एवं निर्दोषपरमात्मश्रद्धावान्मोक्षो भवतीति कथनरूपेण तृतीयस्थले गाथा गता।" स्वर्गवासी देव तथा भवनत्रिक के इन्द्रों से पूजनीय और सर्व पदार्थों में श्रेष्ठ ऐसे परमात्मा का जो भव्यजीव श्रदान करते हैं उनके सब दु.ख नाश को प्राप्त हो जाते हैं। इसतरह निर्दोष परमात्मा के श्रद्धान से मोक्ष होता है, ऐसा कहते हुए तीसरेस्थल में गाथा पूर्ण हुई। परमात्म अवस्था जीव की पर्याय है, उस परमात्मपर्याय के श्रद्धान व ध्यान को मोक्षमार्ग बतलाया गया है। श्री अमृतचन्द्राचार्य का निम्न कलश भी दृष्टव्य है परपरिणति हेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावादविरतमनुभाव्य व्याप्तिकल्माषितायाः । मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते र्भवतु समयसार व्याख्ययैवानुभूतैः ॥३॥ श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं-यद्यपि शुद्धद्रव्यदृष्टि कर तो मैं शुद्ध हूं चैतन्यमात्र मूर्ति है। परन्तु मेरी शाति ( पर्याय ) मोहकर्म के उदय के कारण मैली रागादिरूप हो रही है। शुद्धात्मा की कथनीरूप जो यह समयसारग्रन्थ है, उसकी टीका करने का फल यह चाहता हूँ कि मेरी परिणति ( पर्याय ) रागादि से रहित होकर शुद्ध हो अर्थात् मेरे शुद्धस्वरूप को प्राप्ति हो । इस कलश में श्री अमृतचन्द्राचार्य की वर्तमान अशुद्धपर्याय पर दृष्टि रही है, जिसकी शुद्धि के लिये टीका रची गई है। यही मोक्षमार्ग है। तत्त्वार्थसत्र में श्रीमदुमास्वामी आचार्य ने सम्यग्दर्शन का लक्षण इसप्रकार किया है"तत्वार्यश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ २ ॥ जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥ ४॥ जीव अजीव. आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। समीर पर्यायष्टि मिथ्याष्टि' के सिद्धांत को माननेवाला कहता है कि 'जीव और अजीव इन दो का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है' इसप्रकार सूत्र की रचना होनी चाहिये थी, क्योंकि आस्रव, बंध, संवर. निर्जरा और मोक्ष ये तो पर्यायें हैं । इसपर श्री अकलंकदेव उत्तर देते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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