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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ११४७ "ज्ञानावरणाविभावाःद्रव्यकर्मपर्यायाः सुष्ठु संश्लेषरूपेणानादिसंतानेन बद्धास्तिष्ठन्ति तावत्, यदा कालादिलब्धिवशाद्भदा-भेद रत्नत्रयात्मक व्यवहारनिश्चयमोक्षमार्गलभते तवा तेषां ज्ञानावरणादि भावानां द्रव्यमावकर्मरूप. पर्यायाणामभावं विनाशं कृत्वा पर्यायायिकनयेनाभूतपूर्वसिद्धो भवति, द्रव्याथिकनयेन पूर्वमेव सिद्धरूप इति वार्तिकं।" (पं. का. गा. २० को ता. वृ टीका) इस संसारीजीव का अनादिप्रवाहरूप से ज्ञानावरणादि आठों कर्मों के साथ संश्लेषरूप बंध चला आ रहा है। जब कोई भव्यजीव कालादि लब्धि के वश से भेदरत्नत्रयस्वरूप व्यवहारमोक्षमार्ग को और अभेदरत्नत्रयस्वरूप निश्चयमोक्षमार्ग को प्राप्त करता है तब वह भव्य जीव उन ज्ञानावरणादि कर्मों की द्रव्य और भावरूप अवस्थाओं का नाशकरके पर्यायदृष्टि से सिद्ध भगवान हो जाता है। वह सिद्धपर्याय पूर्व में कभी प्राप्त नहीं हुई थी, उस सिद्धपर्याय को प्राप्त कर लेता है। द्रव्यदृष्टि से तो पहिले से ही यह जीव स्वरूप से ही सिद्धरूप है। अर्थात् द्रव्यदृष्टि में मोक्षमार्ग संभव नहीं है। एकांत पर्यायदृष्टि से बौद्धमतरूप दूषण प्राता है और एकान्त द्रव्यदृष्टि से सख्यिमतरूप दूषण प्राता है, क्योंकि 'क्षणिकैकांतरूपं बौद्धमतं नित्यकांतरूपं सांख्यमतं ।' ऐसा आर्षवचन है। 'जैनमते पुनः परस्परसापेक्षद्रव्यपर्यायस्वान्नास्ति दूषणं ।' किन्तु जैनमत में परस्पर सापेक्ष द्रव्यदृष्टिपर्याय दष्टि मानने से कोई दूषण नहीं आता। "यद्यपि शुद्धनिश्चयेन शुद्धोजीवस्तथापिपर्यायाथिकनयेन कथंचित्परिणामित्वे सत्यनादिकर्मोदयवशादामाद्य • पाधिपरिणामं गृह्णाति स्फटिकवत् । यदि पुनरेकांतेनपरिणामी भवति तदोपाधि परिणामो न घटते।" अजमेर से प्रकाशित समयसार पृ० ३०१ । यद्यपि शुद्धनिश्चयनय से जीव शुद्ध है फिर भी पर्यायष्टि से कथंचित् परिणामीपना होनेपर अनादिकाल से धाराप्रवाहरूप से चले आये कर्मोदय के वश से यह जीव स्फटिक पाषाण के समान ही रागादिरूप उपाधि परिणाम को ग्रहण करता है। यदि द्रव्यदृष्टि के एकान्त से यह जीव अपरिणामी ही हो तो इस जीव का रागादि उपाधिरूप परिणाम कभी घटित नहीं हो सकता है। जब एकान्तद्रव्यदृष्टि में इस जीव के रागादि परिणाम घटित नहीं हो सकते तो मोक्षमार्ग भी घटित नहीं हो सकता। "पर्यायाथिकनयविभागैतमनुष्याविरूपविनश्यति जीवः । न नश्यति कश्चिद्रव्याथिकनय विभागः । यस्मादेवं नित्यानित्यस्वभावं जीवरूपं ।" यह जीव पर्यायष्टि से देव, मनुष्य आदि पर्यायों के द्वारा विनाश को प्राप्त होता है। द्रव्यदृष्टि से जीव नाश को प्राप्त नहीं होता है। इसप्रकार जीव नित्य अनित्यस्वभाववाला है। द्रव्य दष्टि से जीव नित्य अपरिणामी है और पर्याय दृष्टि से अनित्य परिणामी है। जो एकांत से जीव को नित्य अपरिणामी मानते हैं वे सांख्यमतवालों के समान मिथ्याडष्टि हैं। "स जीवो मिथ्यावृष्टिरनाहतो ज्ञातव्यं । कथं मिथ्यादृष्टिः ? इति चेत् यदेकांतेन नित्यकुटस्योदपरिणामी टंकोत्कीर्णः सांख्यमतवत्।" जो एकांतद्रव्यदृष्टि से जीव को नित्य कूटस्थ अपरिणामी और टंकोत्कीर्ण मानता है तो वह सांख्यमतवालों के समान मिध्यादृष्टि है अहंतमत का मानने वाला नहीं है । यद्यपि द्रव्यदृष्टि से सर्व जीव एक समान हैं उनमें कोई भेद नहीं है तथापि पर्यायष्टि से जीव तीनप्रकार का है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य मोक्षप्राभृत में कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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