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________________ ध्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ११४९ "अनेकान्ताच्च । द्रव्याथिकपर्यायाथिकयोर्गुणप्रधानमावेन अर्पणानर्पणभेदात् जीवाजीवयोरास्रवादीनां स्थावन्तर्भावः स्यादनन्तर्भावः । पर्यायाथिकगुणभावे द्रव्याथिकप्राधान्यात आत्रवादिप्रतिनियतपर्यायानपणातू अनादि पारिणामिकचैतन्याचैतन्यादि द्रव्यापिणाद आस्रवादीनां स्याज्जीवेऽजीवे वान्तर्भावः। तथा द्रव्याथिकगुणभावे पर्यायाथिकप्राधान्याद् आस्रवादिप्रतिनियतपर्यायाथिकार्पणाद् अनादिपारिणामिकचैतन्याचैतन्यादिद्रव्यार्थाऽनर्पणाद् आत्रवा. बीना जीवाजीवयोः स्यावनन्तर्भावः । तदपेक्षया स्यादुपदेशोऽर्थवान् ।" [त. रा. वा. ] वस्तुत: जीव, अजीव और आस्रव आदि में परस्पर भेद भी है और प्रभेद भी है ऐसा अनेकांत है, अतः अनेकांतदृष्टि से विचार करना चाहिये । पर्यायष्टि गौरण होने पर और द्रव्यदृष्टि की प्रधानता रहने पर अनादि पारिणामिक जीव और अजीवद्रव्य की मुख्यता होने से आस्रवादि पर्यायों की विवक्षा न होने पर उन आस्रव प्रादि पर्यायों का जीव और अजीव में अन्तर्भाव हो जाता है, अतः जीव और अजीव इन दो पदार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। किन्तु जिससमय उन प्रास्रवादि पर्यायों को पृथक-पृथक् ग्रहण करनेवाली पर्यायार्थिकदृष्टि की मुख्यता होती है तथा द्रव्यदृष्टि गौण होती है तब आस्रवादि पर्यायों का जीव और अजीव में अन्तर्भाव नहीं होता। अतः पर्यायष्टि से इन आस्रव आदि पर्याय का उपदेश सार्थक है निरर्थक नहीं है । अर्थात् आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष इन पर्यायों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, यह उपदेश पर्यायदृष्टि से यथार्थ है। एकान्त मिथ्या मतों का समूह अनेकान्त नहीं है, क्योंकि उनके मतों में नयों में परस्पर सापेक्षता नहीं है। कहा भी है ते सावेक्खा सुणया णिरवेक्खा ते वि दुग्णया होति । सयल ववहार-सिद्धि सु णयादो होवि णियमेण ॥२६६॥ [स्वा. का. अ.] संस्कृत टीका-"सापेक्षाः स्वविपक्षापेक्षा सहिताः।" जो नय सापेक्ष हों अर्थात अपने विपक्ष की अपेक्षा करते हैं वे सुनय होते हैं। यदि नय निरपेक्ष हों अर्थात विपक्ष की अपेक्षा से रहित हों तो दुनंय होते हैं । द्रव्यदृष्टि यदि पर्यायष्टि सापेक्ष है तो सुदृष्टि है यदि द्रव्यदृष्टि पर्यायष्टि से निरपेक्ष है तो कुदृष्टि है । श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी कहा है एते परस्परापेक्षा: सम्यग्ज्ञानस्य हेतवः । निरपेक्षाः पुनः सन्तो मिथ्याज्ञानस्य हेतवः ॥ ५१॥ [त. सा. प्र. अ. ] ये नय यदि परस्पर सापेक्ष रहते हैं अर्थात् अपने विपक्ष की अपेक्षा रखते हैं तो सम्यग्ज्ञानके हेतु होते हैं और यदि निरपेक्ष रहते हैं अर्थात् अपने विपक्ष की अपेक्षा नहीं रखते हैं तो मिथ्याज्ञान के हेतु होते हैं । यदि द्रव्य दृष्टि पर्यायदृष्टि सापेक्ष है और पर्यायष्टि द्रव्यदृष्टि सापेक्ष है तो सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान की कारण है। यदि द्रव्यदृष्टि पर्यायदृष्टि निरपेक्ष है और पर्यायहष्टि द्रव्यदृष्टि निरपेक्ष है तो मिथ्यादर्शन व मिध्याज्ञान के कारण हैं । जिसप्रकार "न देवाः।" इस सूत्र के आधार पर यदि कोई देवपर्याय का निषेध करने लगे तो वह विद्वान् नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसने पूर्वापर प्रकरण अनुसार सूत्र का अर्थ नहीं समझा। इसीप्रकार 'मैं सुखी-दु:खी, मैं रंक राव' छहढाला के इस वाक्य के आधार पर सम्पादक जैन सन्देश 'पर्यायष्टि मिथ्याष्टि' ऐसा सिद्धान्त बना लेवें तो यह उसकी भूल है, क्योंकि उन्होंने पूर्वापर प्रकरण पर दृष्टि नहीं दी। प्रकरण इसप्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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