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________________ ११४६ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार: शुद्धद्रव्याथिकनय से जीव में शुभ या अशुभरूप परिणमन करने को अभाव है। इसलिये जीव न तो प्रमत्त ही है और न अप्रमत्त ही है । मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर प्रमत्तविरत गुणस्थान तक छह गुणस्थानों में जीव की जो अवस्था है वह प्रमत्त अवस्था है। अप्रमतविरत गुणस्थान से लेकर अयोग केवली गुणस्थानतक पाठ Tणस्थानों में जीव की जो पर्यायें हैं वे अप्रमत अवस्था है । इसप्रकार द्रव्यष्टि में न बंधमार्ग है और न मोक्षमार्ग है । यह पर्यायदृष्टि में ही संभव है, जैसा कहा भी है पाडुब्भवदि य अण्णो पज्जओ, पज्जओ वयदि अण्णो। दव्वस्स तं पि दव्वं सेव पणटुं ण उप्पण्णं ॥प्र. सा. गा० १०३ "प्रादुर्भवति च जायते अन्यः कश्चिद्दर्शनान्तज्ञानसुखादिगुणास्पदभूतः शाश्वतिकः परमात्मावाप्तिरूपः स्वमावद्रव्यपर्यायः पर्यायो व्येति विनश्यति अन्यः पूर्वोक्तमोक्षपर्यायाद्भिन्नो निश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिरूप मोक्षपर्यायस्योपादानकारणभूतः, तदपिशुद्धद्रव्याथिकनयेन परमात्मद्रव्य नव नष्टं न चोत्पन्नम।" यहां पर यह बतलाया गया है कि पर्यायष्टि से जीव को अनन्तज्ञान-सुख प्रादि गुणवाली शाश्वतिक मक्तावस्थारूप स्वभावद्रव्यपर्याय उत्पन्न होती है और उस मुक्तावस्था (पर्याय ) से भिन्न निश्चयरत्नत्रयात्मक निविकल्पसमाधिरूप तथा मोक्षपर्याय की उपादान कारण ऐसी मोक्षमार्गपर्याय का व्यय (नाश ) होता है, किन्तु द्रव्याथिकदृष्टि से जीवद्रव्य न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है। ति व्यदृष्टि में न मोक्ष है और न मोक्षमार्ग है तथा न सम्यग्दृष्टि है और न मिथ्याष्टि है, क्योंकि ये सब पर्यायें हैं। यद्यपिशवात्मरुचिपरिच्छितिनिश्चलानुभूति लक्षणस्य संसारावसानोत्पन्न कारण समयसारपर्यायस्य विनाशो भवति. तथैव केवलज्ञानाविध्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारपर्यायस्योम्पा रूपस्य कायसमयसारपोयस्योत्पावश्च, भवति तथाप्युभयपर्यायपरिणतारम पनि द्रव्यत्वेन ध्रौव्यत्वं पदार्थत्वादिति ।" (प्र. सा. गा. १८ टीका ) शदात्मा की रुचिरूप सम्यक्श्रद्धान, उसी का सम्यग्ज्ञान तथा उसी की अनुभूति में निश्चलतारूप चारित्र; नत्रयमय लक्षण को रखनेवाले संसार के प्रति में होनेवाले कारणसमयसाररूप मोक्षमार्गपर्याय का यद्यपि नाश होता है और उसीप्रकार केवलज्ञान आदि की प्रगटतारूप कार्यसमयसाररूप मोक्षपर्याय का उत्पाद होता है तो भी दोनों ही पर्यायों में रहनेवाले प्रात्मद्रव्य का ध्रौव्यपना रहता है। यहाँ पर भी यही बतलाया गया है कि पर्यायदृष्टि में ही मोक्षमार्गपर्याय का व्यय और मोक्षपर्याय का सपा संभव है। द्रव्यदृष्टि में, उत्पाद व व्यय न होने के कारण न मोक्ष है और न मोक्षमार्ग है। उप्पत्तीव विणासो दस्वस्स य णस्थि अस्थि सब्भावो। विगमुप्पादधुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जायाः ॥११॥ ( पं० का०) टीका-"द्रव्यापणायामनुत्पावमनुच्छेदं सत्स्वभावमेवद्रव्यं । तदेव पर्यायापिणायां सोत्पादं सोच्छेदं चावबोद्धव्यम् ।" द्रव्यदृष्टि से द्रव्य को उत्पादरहित, विनाशरहित सत्स्वभाव वाला जानना चाहिये, किन्तु पर्यायष्टि से उत्पादवाला, विनाशवाला जानना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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