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________________ ८८२ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । बंसणध्वं जाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवमोगा। जुगवं, जह्मा केबलिणाहे जगवं तु ते दो वि ॥४४॥ वृ. प्र. सं. अर्थ-छमस्थ जीवों के दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है, क्योंकि छद्मस्थों के ज्ञान और दर्शन ये दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते। केवली भगवान के ज्ञान और दर्शन ये दोनों ही उपयोग एक साथ होते हैं। -जं. ग. 7-10-65/IX/ शान्तिलाल अर्हन्त-सिद्ध में भी उपयोग होता है शंका-अरहंत और सिद्ध भगवान में उपयोग है या नहीं ? यदि है तो कौनसा उपयोग है ? समाधान-'उपयोग' जीव का लक्षण है, यदि श्री अहंत व सिद्ध भगवान में उपयोग न माना जाय तो उनके जीवत्व के प्रभाव का प्रसंग आ जायगा। कहा भी है "उपयोगो लक्षणम् । सद्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ।" मोक्षशास्त्र २।८ व ९ । टीका-उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानश्चतन्यानुविधायी परिणामउपयोगः । स उपयोगो द्विविधः ज्ञानोपयोगी दर्शनोपयोगश्चेति । ज्ञानोपयोगोऽष्टभेदः मतिज्ञानं, शुतज्ञानमवधिज्ञानं, मनःपर्ययज्ञानं, केवलज्ञानं, ताज्ञानं, मत्य. ज्ञानं, विभङ्गजानं चेति । वर्शनोपयोगश्चतुर्विधः चक्षुदर्शनमचक्षुर्दशनमवधिदर्शनं केवलदर्शनं चेति । जीव का लक्षण उपयोग है । अंतरंग और बहिरंग निमित्त के वश से चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोग केवर उपयोग दो प्रकार का है (१) ज्ञानोपयोग (२) दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है मतिज्ञान, श्रतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मत्यज्ञान श्रु ताज्ञान, विभंगज्ञान । दर्शनोपयोग चार प्रकार का है। चक्षदर्शन. अवक्षदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन । श्री अहंत और सिद्ध भगवान में केवल ज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग ये दो उपयोग होते हैं। कहा भी है "सजोगिकेवलीणं अजोगिकेवलीणं भण्णमारणे अस्थि केवलणाण, केवलदसण, जुगवदुवजुत्ता वा होति । सिद्धाणं ति भण्णमाणे अस्थि केवलणाणिणो, केवलयंसण, सायार-अणागारेहिं जुगवदुवजुत्ता वा होति ।" धवल पु० २ ओघालाप । सयोगकेवली, अयोगकेवली अर्थात् श्री अहंत भगवान तथा सिद्ध भगवान का आलाप कहने पर इनके केवलज्ञान और केवल दर्शन ये दोनों उपयोग युगपत् होते हैं। अथवा उपयोग तीन प्रकार का है-शुभोपयोग, प्रशुभोपयोग, शुद्धोपयोग । श्री अहंत व सिद्ध भगवान के कषाय का अभाव है, अत: उनके शुद्धोपयोग पाया जाता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार गाथा १४ में [ 'विगदरागो' 'समस्त रागादि दोष रहित्वाद्वीतरागः' ] विगतराग अर्थात् समस्त रागादि दोष से रहित जीव के शुद्धोपयोग बतलाया है। -जै. ग./18-12-75/VIII) लब्धि व उपयोग में अन्तर शंका-लब्धि व उपयोग में क्या अन्तर है ? समाधान-मतिज्ञान इन्द्रिय व मन की सहायता से उत्पन्न होता है । इन्द्रिय व मन की रचना ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशमानुसार होती है जिसके मात्र एक स्पर्शन-इन्द्रियावरण का क्षयोपशम है उसके मात्र एक स्पर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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