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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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इन्द्रिय की रचना होगी अन्य इन्द्रियों की रचना नहीं होगी। जिस जीव के स्पर्शन-इन्द्रियावरण और रसनाइन्द्रियावरण का क्षयोपशम है उस जीव के स्पर्शन और रसना दो इन्द्रियों की ही रचना होगी, अन्य इन्द्रियों की रचना नहीं होगी। इस क्षयोपशम को लब्धि कहते हैं ।
" यत्सन्निधानादात्मा द्रश्येन्द्रियनिवृति प्रति व्याप्रियते स ज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषो लब्धिरिति विज्ञायते ।" रा. वा. २।१८ १ जिसके बल से आत्मा द्रव्यइन्द्रियों की रचना में प्रवृत्त हो ऐसे ज्ञानावरणकर्म के विशेष क्षयोपशम का नाम लब्धि है।
ज्ञानावरण के क्षयोपशम रूप लब्धि तथा द्रव्य-इन्द्रिय व प्रकाश आदि निमित्तों से जो जानने रूप आत्मा का परिणाम विशेष होता है वह उपयोग है। कहा भी है
" तन्निमित्तः परिणाम विशेष उपयोगः ।" रा. वा. २।१८।२
ज्ञानावरणकर्म के उस विशिष्ट क्षयोपशम से ज्ञायमान जो आत्मा का परिणाम विशेष है उसका नाम उपयोग है ।
ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से ज्ञायमान जो प्रात्मा में जानने की शक्ति वह तो लब्धि है। उस लब्धि को प्रयोग में लाकर जो आत्मा का जानने रूप परिणाम वह उपयोग है । लब्धि कारण है, उपयोग कार्य है ।
-- जै. ग. 8-8 68 / VI / रोशनलाल
मन का कार्य
शंका- मन ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग में उपकारक है या नहीं ? यदि कहा जाय कि उसकी सहायता बिना इन्द्रियों की अपने विषयों में प्रवृत्ति नहीं होती तो क्या मन का इतना ही कार्य है कि इन्द्रियों की सहायता करता रहे ? क्या इससे अतिरिक्त मन का अन्य कुछ कार्य नहीं है ?
समाधान- जो संज्ञी जीव हैं उनके इन्द्रियों का व्यापार मनपूर्वक होता है। धवल पृ० १ पृ० २८८ पर कहा भी है
"समनस्कानां क्षायोपशमिकं ज्ञानं तम्मनोयोगात्स्यादिति चैत्र इष्टत्वात्" किन्तु जो अमनस्क जीव हैं उनके मन के बिना इन्द्रियों की प्रवृत्ति के द्वारा ज्ञान की उत्पत्ति होती है। श्री धवल पु० १ पृ० २५७ पर कहा है
"विकलेन्द्रिय जीवों के मन के बिना ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती है ? ऐसा नहीं है, क्योंकि मन से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है, यह कोई एकान्त नहीं है। यदि मन से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है, यह एकान्त मान लिया जाता है, तो सम्पूर्ण इन्द्रियों से ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी । मनसे समुत्पन्नत्वरूप धर्म इन्द्रियों में रह भी तो नहीं सकता, क्योंकि दृष्ट, श्रुत, अनुभूत को विषय करने वाले मानस ज्ञान का दूसरी जगह सद्भाव मानने में विरोध आता है। यदि मन को चक्षु आदि इन्द्रियों का सहकारी कारण माना जावे सो भी नहीं बनता, क्योंकि प्रयत्न सहित आत्मा के सहकार को अपेक्षा रखने वाली इन्द्रियों से इन्द्रियज्ञान की उत्पत्ति पाई जाती है ।"
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