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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ८८१ बाह्यविषय में जो सामान्य का ग्रहण है उसका नाम 'दर्शन' स्थापित किया। यह सफेद है-इत्यादि रूप से बाह्य विषय में जो विशेष का जानना है उसका नाम 'ज्ञान' स्थापित किया अतः दोष नहीं। सिद्धान्त में मुख्यता से निज समय का व्याख्यान है इसलिये सिद्धान्त में सूक्ष्म व्याख्यान करने पर प्राचार्यों ने 'जो आत्मा का ग्राहक है, उसे दर्शन कहा है अत: इसमें भी दोष नहीं। (बृहद द्रव्य संग्रह गाथा ४४ की संस्कृत टीका ) तर्क शास्त्र में ज्ञान के मध्य दर्शन को अन्तर्गत करके ज्ञान को ही स्व-पर प्रकाशक कहा है। -ज.ग. 16-11-61/VI/ एल. एम.जन (१) अघातिया कर्मों का क्षयोपशम नहीं होता (२) छमस्थ के प्रावरणद्वय का क्षयोपशम अक्रमभावी है। उपयोग अनमभावी नहीं शंका-छपस्थों के आठों कर्मों का उदय प्रतिसमय रहता है। जब आठों कर्मों का उदय प्रति समय रहता है तो आठों कर्मों का क्षयोपशम भी प्रतिसमय मानना पड़ेगा। जब आठों कर्मों का क्षयोपशम प्रतिसमय है तो वर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग कम से क्यों माने गये हैं । युगपत होने चाहिये ? समाधान-दसवें गुणस्थान तक छद्मस्थ के आठों कर्मों का उदय निरंतर रहता है। उपशांतमोह-ग्यारहवेंगुणस्थान में और क्षीणमोह-बारहवेंगुणस्थान में वीतरागछमस्थ के सात कर्मों का उदय होता है मोहनीयकर्म का उदय नहीं रहता है। पाठ कर्मों में चार घातियाकर्म हैं और चार अघातियाकम हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय ये चार घातिया कर्म हैं। तथा वेदनीय, आयु. नाम, गोत्र ये चार अघातिया कर्म हैं। जो घातिया कर्म हैं उनमें सर्वघाति और देशघाति दो प्रकार के स्पद्धक होते हैं। सर्व. घातीस्पद्धकों का उदयाभावरूप क्षय और सदवस्थारूप उपशम तथा देशघाति स्पद्धकों का उदय होने से कर्मों का क्षयोपशम होता है। कर्मों के क्षयोपशम होने से जो आत्मा का भाव होता है वह क्षयोपशमिकभाव है। अघातियाकर्मों में सर्वघाति और देशघाति स्पर्द्धक नहीं होते, अतः अधातिया कर्मों का क्षयोपशम भी नहीं होता है । मात्र चार घातियाकर्मों का क्षयोपशम होता है। चार घातियाकर्मों में से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मों का तो प्रत्येक जीव के सर्वदा क्षयोपशम रहता है । दर्शनमोहनीयकर्म का क्षयोपशम सम्यग्दष्टि जीव के और चारित्रमोहनीयकर्म का क्षयोपशम संयमी के होता है। तीसरे सम्यग्मिथ्यात्व-मिश्रगुणस्थान में भी दर्शनमोहनीयकर्म का क्षयोपशम और संयमासंयम-पंचमगुणस्थान में चारित्रमोहनीयकर्म का क्षयोपशम होता है। किन्तु यहाँ पर मोहनीयकर्म की विवक्षा नहीं है, क्योंकि शंका मात्र दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग के सम्बन्ध में है। यद्यपि प्रत्येक जीव के छमस्थ-अवस्था में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मों का सर्वदा क्षयोपशम रहने से क्षायोपशमिकज्ञान और क्षायोपश मिकदर्शन भी निरंतर रहते हैं, तथापि इन कर्मों के देशघाति स्पर्टकों का उदय होने के कारण ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग युगपत् नहीं होते, क्रम से होते हैं । केवलीजिन के सर्वघाति और देशघाति दोनोंप्रकार के स्पर्टकों का अत्यन्त क्षय ( नाश ) हो जाने से ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग युगपत् होते हैं। कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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