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________________ ८८.] [५० रतनचन्द जैन मुस्तार "कम्मकत्तारभावो आगारो, तेण आगारेण सह वट्टमाणो उवजोगो सागारो त्ति । सायारो गाणं।" धवल पु० १३ पृ. २०७ "सागारो गाणीवजोगो, तत्थ कम्म-कत्तारमावसंभवादो।" धवल १ पृ० ३३४ अर्थ-कर्म कारक ( ज्ञेय ) आकार कहलाता है। उस प्राकार के साथ जो उपयोग पाया जाता है वह साकार उपयोग है। बिजली के प्रकाश से पूर्व दिशा व देश के आकाररूप सत्ता ग्रहण होती है वह ज्ञानोपयोग नहीं है. क्योंकि उसमें विशेष पदार्थ का ग्रहण नहीं होता ऐसी आशंका ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ ज्ञान से पृथग्भूत कर्म ( ज्ञेय ) पाया जाता है, इसलिये वह भी ज्ञान है, वहाँ पर दिशा, देश, आकार और वर्ण आदि विषयों से युक्त सत्ता का ग्रहण पाया जाता है। कर्म-कर्तृभाव का नाम आकार है, उस आकार के साथ जो उपयोग रहता है, उसका नाम साकार है। साकारोपयोग का नाम ज्ञान है । साकार अभिप्राय ज्ञानोपयोग का है, क्योंकि उसमें ( पृथक् ) कर्म ( ज्ञेय ) और कर्ता ( ज्ञान ) को सम्भावना है। -जें. ग. 28-1-71/VII/ रो. ला. मित्तल दर्शन और ज्ञान का कार्य शंका-'सत्तावलोकनम् मात्रम् दर्शन'; 'दर्शनं स्वप्रकाशकमात्रम्' । दर्शन आत्मावलोकन है, ज्ञान परप्रकाशक है अथवा स्वपर प्रकाशक है, ऐसा कथन आया है । सो यह सत्तावलोकन मात्र दर्शन हमारी समझ में संसारी ( छमस्थ ) जीवों के लिए है और आत्मावलोकन मात्र अर्हन्तादि व संसारी के लिए है, क्योंकि तीन लोक में चेतन-अचेतन जितने पदार्थ हैं उनकी त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायों के सामान्य विशेष केवली के ज्ञान में प्रतिसमय झलकते हैं, सामान्य नहीं। तो क्या उनके ज्ञान में इतनी कमी है कि सामान्य को नहीं जान सकते और यदि सामा पूर्ण अवस्था झलक गई तो फिर केवलदर्शन का क्या बाकी रहता है ? जिस समय उनके शानमें सम्पूर्ण पदार्थ युगपत् झलकते हैं। उस समय उनका दर्शन आत्मावलोकन में लगा है, ऐसा मानने में क्या बाधा है। समाधान-ज्ञान का विषय वस्तु है जो सामान्य विशेषात्मक है । ( परीक्षामुख अ• ४ सूत्र १) 'ज्ञान मात्र विशेष को जानता है' ऐसा कहा नहीं जा सकता, क्योंकि सामान्यरहित मात्र विशेष प्रवस्तु है। अतः सामान्य र को ग्रहण करने वाला ज्ञान है । सामान्य-विशेषात्मक स्व को ग्रहण करने वाला दर्शन है। इन्द्रियज्ञान से पूर्व ही जो सामान्य स्वशक्ति का अनुभव है और जो इन्द्रियज्ञान की उत्पत्ति में निमित्तरूप है वह दर्शन है। विशेष के लिए देखिए-धवल पु०१ पृ० १४५, ३८०; पु० ६, पृ० १,३३, पु०१३ पृ० ३५४; पु० १५ पृ. ५-६; जयधवल पु० १ पृ० ३५९-६० । तर्क शास्त्रों में सत्तावलोकन को दर्शन कहा है, क्योंकि तर्क में मुख्यता से अन्य मतों का व्याख्यान है। इसलिए उसमें यदि कोई अन्य मतावलम्बी पूछे कि जैनसिद्धान्त में जीव के दर्शन पोर ज्ञान जो दो गुण कहे हैं, वे कैसे घटित होते हैं, तब उसके उत्तर में अन्यमतियों को कहा जाय कि 'जो आत्मा को ग्रहण करने वाला है वह दर्शन है तो वे अन्यमती इसको नहीं समझते । तब भाचार्यों ने उनको प्रतीति कराने के लिये स्थूल व्याख्यान से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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