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________________ व्यक्तित्व र कृतित्व ] [ १०३३ यदि धर्मद्रव्य को जीव पुद्गल के गमन में सहकारी कारण न माना जाय और उसके अभाव में जीवपुद्गलों के गमन का अभाव न माना जाय तो सर्वोत्कृष्ट स्वाभाविक ऊध्वंगति से परिणत सिद्ध भगवान लोकाकाश के अन्त में क्यों रुक जाते ? कहा भी है "उडुंग दिप्पधाणा सिद्धाचिट्ठति विधतत्थ ।” ( पं० का० ) तत्वार्थ सूत्र में भी 'धर्मास्तिकायाभावात् ।' सूत्र द्वारा यह बतलाया है कि धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण सिद्धजीव लोक के अन्त में ठहर जाते हैं । कुछ अन्य मतियों का यह कहना है कि जीव व पुद्गल लोकाकाश के द्रव्य हैं। उनमें लोकाकाश से बाहर जाने की शक्ति नहीं है, किन्तु उनकी यह मान्यता जैन मान्यता से विरुद्ध है, क्योंकि सिद्धों में सर्वोत्कृष्ट स्वाभाविक ऊर्ध्वगमनशक्ति है । कहा भी है "सर्वोत्कृष्ट स्वाभाविकोधर्वगतिपरिणता भगवंतः सिद्धाः । " लोक- अलोक का विभाजन भी धर्म-अधर्म के कारण हुआ है । लोयालोयविभेयं गमणं ठाणं च जाण हेदूहि । जह णहि ताणं हेऊ किह लोयालोयववहारं ।। १३५|| नयचक्र लोक- अलोक के विभाजन में धर्म-अधर्मद्रव्य कारण है यदि धर्म-अधर्मद्रव्य का विभाजन न माना जाय तो लोक- अलोक का व्यवहार नहीं हो सकता है । - जै. ग. 14-1-71 / VII / रो. ला. जैन जीव की लोकाकाश से बाहर जाने की शक्ति तो है; पर व्यक्ति नहीं; यह त्रिकाल सत्य है शंका- श्री कानजी स्वामी परमार्थ से शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा 'जीव में लोकाकाश तक ही जाने की शक्ति है, अलोकाकाश में जाने की शक्ति नहीं है' कहते हैं। फिर ३१ अक्टूबर १९५७ के जैन संदेश में व्यवहारनय का आश्रय लेकर इस निश्चयनय के पक्ष का खंडन करना उचित नहीं है । एक विद्वान ने अपने उपवेश में स्वामीजी के इस मत का मंडन करते हुए एक दृष्टान्त भी दिया है जो इस प्रकार है - 'दूरान्दूर मध्य के मोक्ष जाने की शक्ति के व्यक्त होने का प्रसंग कभी नहीं आवेगा । इससे निश्चयनय से दूरानदूर भव्य के मोक्ष जाने की शक्ति का अभाव ही मानना पड़ेगा । इसीप्रकार जीव की अलोकाकाश में जाने को शक्ति के व्यक्त होने का प्रसंग कमी आवेगा नहीं अतः निश्चयनय से जीव में अलोकाकाश में जाने की शक्ति का अभाव स्वीकार करना पड़ेगा ।' या तो आप अपनी भूल को स्वीकार करें या निश्चयनय की अपेक्षा से इस विषय को स्पष्ट करने की कृपा करें ? समाधान - मैंने ३१ अक्टूबर १९५७ के समाधान में अनेक दिगम्बर जैन आगमों का प्रमाण देकर यह सिद्ध किया है कि जीव में प्रलोकाकाश में जाने की शक्ति है, किन्तु लोकाकाश से श्रागे धर्मद्रव्य जो कि गमन में सहकारीकारण है, का प्रभाव होने से वह शक्ति व्यक्त नहीं होने पाती । अतः धर्मद्रव्य के प्रभाव के कारण जीव लोकाकाश के बाहर गमन नहीं कर पाता, लोकाकाश के अन्त में रुक जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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