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________________ १०३२ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । लोकशिखर से ऊपर सिद्धों की गति क्यों नहीं होती ? गति का सहकारी कारण जो धर्मास्तिकाय उसका अभाव होने से लोकशिखर से प्रागे सिदों की गति नहीं होती। श्री अकलंकदेव ने भी राजवातिक में कहा है "गत्युपग्रहकारणभूतो धर्मास्तिकायो घ नोपर्यस्तीत्यलोके गमनामावः । तवभावे लोकालोकविभागाभावः । प्रसज्यते।" अर्थ-लोकाकाश से आगे गतिउपग्रह में कारणभूत धर्मास्तिकाय नहीं है। अतः आगे सिद्धों की गति नहीं होती। आगे धर्मद्रव्य का सद्भाव मानने पर लोकालोक विभाग का अभाव ही हो जायगा। लोयालोयविभेयं गमणं ठाणं च जाण हेद्रहि । जइ नहि ताणं हेऊ किह लोयालोयववहारे ॥१३५॥ ( नयचक्र ) गमन पौर स्थिति के हेतुभूत धर्म-अधर्मद्रव्य ही लोक अलोक के विभाग के कारण हैं। इससे सिद्ध होता है कि जीवद्रव्य या सिद्धजीव लोक-अलोक के विभाग के कारण नहीं हैं। यदि धर्मद्रव्य लोक से बाहर भी होता तो जीव का गमन लोक से बाहर अवश्य हो जाता। गमनरूप क्रिया में जीव और धर्मद्रव्य दोनों ही कारण हैं । जो कार्य दो कारणों से होता है वह कार्य एक कारण से नहीं हो सकता। "बोहितो चेवुप्पज्जमाणकज्जस तत्थेक्काको समुप्पत्तिविरोहावो।" अर्थ-दोनों से उत्पन्न होने वाले कार्य की उनमें से एक के द्वारा उत्पत्ति का विरोध है । सिलों में गमनशक्ति होते हए भी धर्मास्तिकाय के अभाव में लोकशिखर से आगे सिद्धों का गमन नहीं होता है। -ज.ग. 26-12-68/VII/मगनमाला क्या पुद्गल परमाणु १४ राजू से बाहर नहीं जा सकता है ? शंका-क्या शीघ्रगति से गमन करने वाला पृद्गल परमाणु १४ राजू से बाहर नहीं जा सकता है ? यदि नहीं तो क्यों? समाधान-१४ राजू अर्थात् लोकाकाश से बाहर जीव या पुद्गल कोई भी द्रव्य नहीं जा सकता है, क्योंकि गमन में सहकारी कारण धर्मद्रव्य का अभाव है। सिद्धों में अनन्तवीयं व ऊध्वंगमन स्वभाव होने के कारण अनन्त राज तक गमन शक्ति है, किन्तु धर्मद्रव्य निमित्त के प्रभाव में उपादान में योग्यता होते हुए भी गमनरूप कार्य नहीं हो रहा है । श्री कुबकुवाचार्य ने कहा भी है जीवाणं पुग्गलाणं गमणं जाणेहि जाव धम्मस्थी। धम्मस्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छति ॥१८४॥ नि.सा. अर्थ-जहां तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक जीवों का और पुद्गलों का गमन जानना चाहिए । धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण उससे आगे जीव-पुद्गल गमन नहीं करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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