SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०३४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तारः नरममा संसारी जीवों का कर्म के निमित्त से छहों दिशानों में गमन होता है, किन्तु मुक्त जीवों के स्वाभाविक ऊर्ध्वगति होती है ( पंचास्तिकाय गाथा ७३ की टीका) कर्मों के प्राधीन होने के कारण संसारी जीवों की गति तो सावधि हो सकती है, किन्तु मुक्त जीवों के कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण उनकी ( मुक्त जीवों की ) स्वा. भाविक ऊध्वंगमनशक्ति सावधि न होकर निरवधि होगी, क्योंकि विरोधी कारण का सर्वथा अभाव है। श्री पंचास्तिकाय गाथा ९२ की टीका में कहा है कि सिद्ध भगवान सर्वोत्कृष्ट स्वाभाविक ऊर्ध्वगति परिणत होते हैं 'सर्वोत्कृष्ट स्वाभाविकोर्ध्वगतिपरिणत भगवंतः सिद्धाः। श्री अमृतचन्द्राचार्य पंचास्तिकाय गाथा ९४ की टीका में लिखते हैं 'जीव पुद्गलानां गतिस्थित्योनिःसीमत्वात्' अर्थात् जीव व पुद्गलों की गति सीमारहित है। 'जीव में उपादानशक्ति ही लोकाकाश तक गमन करने की है। ये वाक्य उपयुक्त आगमप्रमाणों से तथा ३१ अक्टूबर व ७ नवम्बर १९५७ के जैन-संदेश में दिये गये आगम प्रमाणों से विरुद्ध है। अतः शंकाकार स्वयं विचार करे कि उक्त समाधान में मेरी भूल है या 'जीव की गमन शक्ति को सीमित' माननेवाले की। भूल स्वीकार करना दूषण नहीं, किन्तु भूषण है । यदि मेरी भूल होती तो मैं तुरंत स्वीकार कर लेता। निश्चयनय शक्ति का विवेचन करता है न कि शक्ति की व्यक्ति का कहा है-'सव्वे शुद्धा हु सुद्धणया-त एव सर्वे संसारिणः शुद्धा सहजशुद्ध केकस्वभावाः ।' अर्थात् वे ही सब संसारीजीव निश्चयनय की अपेक्षा से शुद्ध यानी स्वाभाविक शूद्धज्ञायकरूप स्वभाव धारक हैं। यह निश्चयनय का कथन शक्ति की अपेक्षा से है, क्योंकि संसारी जीव अशुद्ध हैं फिर भी उनको निश्चयनय की दृष्टि में शक्ति की अपेक्षा शुद्ध कहा है। ( वृहद् व्यसंग्रह गाथा १२ व इसीप्रकार सिद्धभगवान का अलोकाकाश में गमन न होने पर भी निश्चयनय की दृष्टि में असीमित शक्ति की अपेक्षा यह ही कहा जावेगा कि सिद्धभगवान में प्रलोकाकाश में गमन करने की उपादान शक्ति है। अतः निश्चय नय की अपेक्षा भी सिद्धों की शक्ति को सीमित मानना आगमानुकूल नहीं है। सिद्धभगवान में अलोकाकाश में गमन करने को उपादानशक्ति का अभाव सिद्ध करने के लिये जो दूरानदूर भव्य का दृष्टान्त दिया गया है वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'दूरानदूर भव्य में मोक्ष जाने की शक्ति का अभाव है' सा आगम वाक्य नहीं है, किन्तु उनमें मोक्ष जाने की शक्ति का सद्भाव है, जैसा कि षट्खंडागम पुस्तक ७ पृ० १७६ पर कहा है-अनादि से अनन्तकाल तक रहनेवाले भव्य जीव हैं तो सही पर उनमें संसार अविनाशशक्ति का प्रभाव है अर्थात् संसार विनाशशक्ति का सद्भाव है । वर्तमान में दिगम्बर जैन वाणी के अतिरिक्त इस जीव का हितु अन्य कोई नहीं है। शास्त्रों के द्वारा ही देव, गुरु, धर्म व नवपदार्थ व निज के वास्तविक स्वरूप का बोध होता है, जिससे सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। श्री प्रवचनसार में कहा भी है-जिनशास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जाननेवाले के नियम से मोहसमह क्षय हो जाता है इसलिये शास्त्र का सम्यक्प्रकार से अध्ययन करना चाहिये । (गाया ८६ ) श्रमण (मनि ) एकाग्रता को प्राप्त होता है एकाग्रता पदार्थों के निश्चयवान के होती है। पदार्थों का निश्चय आगम द्वारा होता है इसलिये आगम मुख्य है ( गा० २३२ ) आगमहीन श्रमण आत्मा को, पर को नहीं जानता। पदार्थों को नहीं जानता हुआ भिक्षु कर्मों को किसप्रकार क्षय कर सकता है (गा० २३३) इसलोक में जिसकी आगमपूर्वक दृष्टि नहीं है, उसके संयम नहीं है, इसप्रकार सूत्र कहता है और वह असंयत श्रमण कैसे हो सकता है ( गा० २३६ ) प्रागम से यदि पदार्थों का श्रद्धान न हो तो मुक्ति नहीं हो सकती ( गा० २३७ ) प्रत्येक दिगम्बर जैन को आगम पर जा श्रद्धान रखना चाहिये। जिसको आगम पर श्रद्धान है उसको आगमविरुद्ध उपदेश नहीं देना चाहिये। उसको तो ऐसे वाक्य भी नहीं उच्चारण करने चाहिये जिनका प्रागम से विरोध होता हो। आगम से विरुद्ध बोलनेवाला मागम का श्रद्धालु कैसे हो सकता है ? जिसको दिगम्बर जैन आगम पर श्रद्धा नहीं वह क्या है, स्वयं पाठकगण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy