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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ८७६ केवलज्ञान स्व और पर दोनों का प्रकाशक है इसलिये केवलदर्शन नहीं है, ऐसा भी नहीं कहना चाहिये, क्योंकि केवलज्ञान स्वयं पर्याय है, इसलिये उसकी दूसरी पर्याय नहीं हो सकती है। यदि केवलज्ञान को स्व-प्रकाशक माना जायगा तो उसकी एक काल में स्व-प्रकाशकरूप और परप्रकाशकरूप दो पर्यायें माननी पड़ेंगी, किन्तु केवलज्ञान स्वयं पर-प्रकाशकरूप एक पर्याय है, अतः उसकी स्व-प्रकाशकरूप दूसरी पर्याय नहीं हो सकती है। केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों प्रकाश एक हैं ऐसा भी नहीं कहना चाहिये, क्योंकि बाह्यपदार्थ को विषय करनेवाला साकार उपयोग और अन्तरंगपदार्थ को विषय करनेवाला अनाकार उपयोग, इन दोनों को एक मानने में विरोध आता है। विशेष के लिये जयधवल पु. १, धवल पु० १, ६, ७, १३ देखनी चाहिये । -ज. ग. 31-10-63/IX/ र. ला. जैन, मेरठ ज्ञान व दर्शन की क्रमशः साकारता एवं निराकारता शंका-क्या दर्शन निराकार है ? क्या पांचों ही ज्ञान साकार हैं ? समाधान-दर्शन अनाकार और ज्ञान साकार है। श्री वीरसेनाचार्य ने कहा भी है "पमाणदो पुधभूदं कम्ममायारो तं जम्मि णस्थि सो उवजोगो अणायारोणाम, दंसणुवजोगो ति भणिवं होदि।" जयधवल पु० १ पृ० ३३१ "अंतरंगविसयस्स उवजोगस्स अणायारत्तब्भुवगमादो। ण अंतरंग उवजोगो वि सायारो, कत्तारादो दम्वादो पुह कम्माणुवलंभादो।" धवल पु० १३ पृ० २०७ "को दंसणोवजोगो णाम ? अंतरंगउवजोगो। कूदो? आगारो णाम कम्मकत्तारमावो, तेण विणा जा उवलद्धी सो अणागारउवजोगो। अंतरंगउवजोगो वि कम्म-कत्तारभावो अस्थि ति णासंकणिज्जं, तत्थ कत्तारादो दव्यखेत्तेहि फट्टकम्मामावादो।" धवल पु० ११ पृ० ३३३ अर्थ-प्रमाण से पृथग्भूत कर्म को आकार कहते हैं अर्थात् प्रमाण में अपने से भिन्न बहिर्भूत जो विषय प्रतिभासमान होता है उसे आकार कहते हैं। वह प्राकार ( बाह्यपदार्थ ) जिस उपयोग में नहीं पाया जाता है वह उपयोग अनाकार अर्थात् दर्शनोपयोग है । अंतरंग को विषय करने वाले उपयोग को अनाकार उपयोग स्वीकार किया गया है। अंतरंग उपयोग विषयाकार होता है, यह बात भी नहीं है, क्योंकि इसमें कर्ता द्रव्य ( आत्मा ) से पृथग्भूत कर्म (ज्ञेय ) नहीं पाया जाता है। __ अंतरंग उपयोग को दर्शनोपयोग कहते हैं, क्योंकि प्राकार का अर्थ कर्ता-कर्मभाव है। उसके बिना जो अर्थोपलब्धि होती है उसे अनाकार उपयोग कहा जाता है। अंतरंग उपयोग में कर्ता-कर्मभाव होता है, ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि उसमें द्रव्य व क्षेत्र की अपेक्षा कर्ता से भिन्न कर्म का अभाव है। "आयारो कम्मकारयं, तेण मायारेण सह तट्टमाणं सायारं। विज्जुज्जोएण जं पुम्वदेसायारविसिट्ठ-सत्तागहणं तं ग णाणं तस्य विसेसग्गहणाभावादो त्ति भणिदे, ण, तं वि गाणं चेव, गाणादो पुधभूदकम्मुवलंभावो। ण च तत्थ एयंतेण विसेसरगहणाभावो, विसा-वेस-संठाण-वण्णादिविसिट्रसत्तवलंभादो।" जयधवल १ पृ० ३३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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