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________________ ४६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ प्रिय भाई, बात करते-करते मैं कहाँसे कहाँ पहुँच गया। ज्ञानपीठका विस्तार होता रहा-डालमियानगर, कलकत्ता और दिल्लीके बीच, किन्तु आप और पंडित फूलचन्दजी, उस समयके निकट सहयोगियोंके साथ जैन वाङमयकी सेवामें जुटे रहे और ज्ञानपीठको जैन ग्रन्थोंके प्रकाशनके यशका भागीदार बनाते रहे। ज्ञानपीठने ज्ञानोदयका प्रकाशन प्रारंभ किया तो आपने और पंडित फूलचन्दजीने जैन विद्याके क्षेत्रमें नया प्रकाश-स्तम्भ स्थापित कर दिया। ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित ज्ञानोदय तीर्थंकरोंकी उदार छाप और मानव कल्याणकी भावनाका पक्षधर बना। सामाजिक चेतनाका यही विश्व-कल्याणकारक रूप ज्ञानोदयमें उभरा। हरिजन मंदिर प्रवेश, अछतोद्धार, सामाजिक क्षेत्रमें विभिन्न जातियों-उपजातियोंके संपर्कको दढ़ करनेकी प्रतिज्ञा आदि सारे विकासोन्मुखी प्रश्न ज्ञानोदयमें प्रतिबिम्बित हुए हैं। जैन शास्त्रोंका विपुल भण्डार जो ज्ञानपीठमें आपके व्यवस्था-संचालनके समय आया और उसने समाज की अनेक प्रतिभाओंको उत्साहित किया. वह ज्ञानपीठके इतिहासका समृद्ध और समुज्ज्वल समय था । आप निरन्तर साथ रहे, और जब अन्ततोगत्वा आप विश्वविद्यालयमें चले गये तो भी जैन ग्रन्थोंका संपादन करते रहे और ज्ञानपीठकी प्रतिष्ठाको चमकाते रहे। एक पूरा इतिहास है । जीवनके वे उभरते-उठते अमूल्य क्षण उत्तेजक, प्रेरक दिन स्मृतिमें बसे हुए हैं । आप इतनी जल्दी क्यों चले गये ? और मैं हूँ कि आज भी बैठा हूँ। लेकिन कितने दिन ? हृदय की समस्त कुण्ठा और प्रेमसे आपको स्मरण किया है। स्वीकार करें यह पत्राञ्जलि यह विनयाञ्जलि । असाधारण विद्वत्ताके धनी • डॉ. रतन पहाड़ी, कामठी वदन प्रसाद सदपं सदपं हृदयं सुधामुचो वाचः। करणं परोपकरणं येषां केषां न तो वन्द्याः ॥ प्रसन्नतासे युक्त ही जिनका मुखमंडल है दयासे पूर्ण जिनका हृदय है-परोपकार ही जिनका कृत्य है । ऐसे पुरुष किनके द्वारा वन्दनीय नहीं होते हैं ? डॉ. पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यका व्यक्तित्व जब स्मृतिपटल पर घूमता है तो ऐसे ही गुणोंसे युक्त उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व, कृतित्व दृष्टिगोचर होता है। आज उन्हें बिछड़े ३ दशकसे अधिक हो गए । साधारण व्यक्तित्व होता तो जनमानस जिसकी प्रवृत्ति विस्मरणशील होती है, भुला दिया जाता किन्तु असाधारण विद्वत्ता तथा असाधारण लेखनी और असाधारण अमल्य ग्रन्थोंके प्रणेताकी स्मृतिको सजीव करनेका श्रेय एक उपाध्यायश्रीको मिलेगा यह कभी स्वप्नमें भी कल्पना नहीं की गई थी। उपाध्यायश्री ज्ञानसागरजी महाराजने उनपर गोष्ठीका आयोजन करके तथा उनके स्मृति ग्रन्थकी रूपरेखा हेतु पुरस्कर्ताके रूपमें प्रेरणास्रोत बनकर स्मतिको पावन रूप देनेका स्तुत्य कार्य किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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