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________________ १/ संस्मरण : आदराञ्जलि : ४७ पं० महेन्द्रकुमारजीके ग्रन्थोंके सम्बन्धमें, उनकी विद्वत्ताके सम्बन्धमें, उनके असाधारण व्यक्तित्वकै सम्बन्धमें इसी स्मृति ग्रन्थमें पर्याप्त प्रकाश डालकर उन्हें अक्षुण्ण अजर-अमर बनाने में तथा उनपर शोध करके दुर्लभ सामग्री प्रस्तुत करके एक उपेक्षित महान् विद्वान्की स्मृतिको देरसे ही सही प्रस्तुत करने का कृतज्ञ कार्य किया है। ___ मैं पं० महेन्द्रकुमारजीका बड़ा दामाद हूँ। दामादको दशम ग्रहकी संज्ञा दी जाती है। दामाद कभी असन्तोष, कभी सन्तोष तथा अनेक पारिवारिक हिन्डोलोंमें झलता है । पं० जीका मैं १९४० में स्याद्वाद दि० जैन महाविद्यालयका विद्यार्थी भी रहा और १९४२ में जेल गया इस कारण पं० जीका आकर्षण मेरे प्रति मेरे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्ययन कालसे ही बढ़ता गया । और न चाहते हुए भी अनेक स्रोतोंसे दबाव डालकर उनका दामाद बन गया। पं० जी वैसे तो ज्ञानपीठमें अपनी टेबल पर बैठकर बड़े सबेरेसे काममें जुट जाते थे लेकिन साहित्यिक और साहित्य सृष्टा की जो गति होती है उसके उदाहरण देशके साहित्यिकोंके लोगोंके सामने हैं पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य इस दृष्टिसे तथा पारिवारिक जिम्मेदारियोंको निभानेकी दृष्टिसे अगर मह खोलकर कहा जाय तो स्पष्ट रूप में कहा जा सकता है कि इस व्यक्तिने सदैव ही अपनेको ग्रन्थ प्रणयनमें खपा दिया, अपने परिवार हेतु साधन जुटानेकी ओर ही खपा दिया-उसका फल भोगनेका जब समय कभी आया और ख्यातिकी चरमसीमा जब छनेको आई तो पं० जी को कालने अपने आगोश में छिपा लिया। एक बारका प्रसंग मुझे याद आ रहा है। पं० जी काशी छोड़कर बम्बई सर्विस हेतु जा रहे थे। स्याद्वाद विद्यालयमें विदाई समारोह मनाया जा रहा था उस समय पं० जीकी असमंजस स्थिति तथा आर्थिक स्थितिकी स्पष्ट रूपरेखा उनकी मुखाकृति पर स्पष्ट देखी जा सकती थी। पं० कैलाशचन्द्रजीने उनकी विदाई पर जो मार्मिक उद्गार प्रकट किए थे वे आज भी मुझे याद हैं-उन्होंने कहा था कि साइकिलकी गतिको वशमें करने के लिए ब्रेक लगाया जाता है--वह ब्रेक अपने काबू में व्यक्तिको रखना होता है पं० जी बम्बई तो जा रहे हैं---मगर लगता है परिस्थितियोंने उन्हें ब्रेक हाथसे छोड़ने पर मजबूर कर दिया है।" और वही हुआ कि पत्नी अथवा घरकी स्थितियोंमें पं० जी ऐसे घिरे कि उन्हें बम्बई छोड़ना ही पड़ा और पुनः काशी वापस आना पड़ा। एक इतना बड़ा विद्वान् जिसने सबसे पहले न्यायाचार्य होनेका गौरव प्राप्त किया हो, एक इतना बड़ा विद्वान् जिसकी टीका पर सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन् जैसे विश्वविख्यात उपकुलपति भी प्रभावित हुए हों और डाक्टरेट भी उसी टीका पर मिली हो-ऐसे महामनीषीका इतना करुण अन्त और अन्तमें जो स्थिति आई उसका स्मरण हो आता है तो शरीरमें कांटे उठ आते हैं-भला इतना ही क्यों ? इससे भी भयानक स्थितिका सामना पं० जी के जीवनमें पं० जीने किया है। पं० जीके घर में रेडियोके वायर लगाने के लिए बाँस लाए थे-बाँस लगने में थोड़ा समय लग क्या गया पं० जीकी दूसरी पत्नीकी इसी अन्तरालमें मृत्यु हो गई और वे बाँस चिता सजानेके काममें आए । ऐसा जीवन जीने वाला व्यक्तित्व कितना सहनशील होगा-इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इतना ही नहीं श्मशानघाटसे पं० जी आकर घर में बैठे हैं हमारे एक मित्र श्री मूलचंदजी बडजात्या पं० जीसे मिलने भाग्यसे पहँचे । उन्हें कुछ भी घटनाका आभास नहीं था-मगर वातावरण उदासी का था। और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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