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________________ स्मृति-पत्राञ्जलि • श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, दिल्ली स्नेही भाई, कैसी विडम्बना है कि जो पत्र आप कभी मेरे विषयमें लिखते, वैसा पत्र आपको स्मृतिमें मैं लिखनेके लिए रह गया हूँ। आप थोड़ी आयुमें ही इतना कुछ कर गये । वाग्देवीके यशस्वी एक पुत्रके रूपमें उनकी वेदी पर इतने सुरभित चिर-अम्लान कमलपुज चढ़ा गये कि पीढ़ियां उनकी सुवाससे माँके मन्दिरको महकता पाकर अपनी साँस-साँसको धन्य कर लेंगी। यह जो स्मृति ग्रन्थ फागुल्लजीने मेरे वरिष्ठ स्नेही मित्रोंके सहयोगसे प्रस्तुत किया है वह आद्यन्त आपके आगमिक और साहित्यिक अवदानकी गाथासे भरा-पूरा है। इस सम्बन्ध में मैं अब क्या कहैं। भारतीय ज्ञानपीठके माध्यमसे, उसके बहविध कार्यकलापके माध्यमसे और समाजके अनेक अनेक सांस्कृतिक आयोजनोंसे हम दोनों भागीदार रहे और विकासके वे आहलादकारी क्षण-वर्ष कर्तव्य-निष्ठाके आत्म-तोषसे परितप्त बिताये-ऐसे गुरुजनों और बन्धुओंके बीच जो युगके लाका परुष थे-प्रातः स्मरणीय वर्णीजीने अपने पावन प्रयत्नसे जिस कल्पवक्षको स्थापित किया। उसकी शाखाओं-प्रशाखाओंने, परितप्त हृदयोंको ज्ञानकी छाया और विद्याके विकासके आश्रय-स्थल प्रदान कर दिए। प्रिय भाई महेन्द्रजी, आपने पूज्य वर्णो जीके ज्योति कलशके जलसे अनेक संस्थाओंको सींचा और आलोकसे उद्भासित किया । कैसे सौभाग्यके वे दिन थे जब डाक्टर हीरालालजी, डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, सिद्धान्ताचार्य पंडित फूलचन्दजी, सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्दजी आदिके साथ हम दोनों बैठकर न केवल उन्हीं विद्वानोंसे मार्गदर्शन प्राप्त करते थे, अपितु उनके स्नेहसे आश्वस्त होकर उनके साथ विचार-विनिमय करते थे, तथा नीति-निर्धारणमें सहयोगी बनते थे, हम दोनों कितनी-कितनी बार माननीय साहू शान्तिप्रसादजीके अद्भुत् गुणोंसे प्रभावित होकर नयी-नयी योजनायें बनाया करते थे और श्रीमती रमा जैन भारतीय ज्ञानपीठकी सहृदया अध्यक्षाके तत्वावधानमें कठिनाईयोंको सहजतासे हल कर लिया करते थे। आप ज्ञानपीठसे सम्बन्धित तो बहुत वर्षों तक रहे, किन्तु ज्ञानपीठके सम्पादक और वाराणसी कार्यालयके अधिकारीके रूपमें कुछ ही वर्षों तक काम कर पाये। हमने कितने उतार-चढ़ाव-कहना चाहिए चढ़ाव-उतार देखे। बहुत ही उन्नत कल्पनाओंसे आप आविभूत होकर ऊँचेसे ऊँचे शिखर छु लेना चाहते थे और ज्ञानपीठ को उन शिखरों तक ले जाना चाहते थे। जो हो सका, बहुत हआ। जो नहीं हो सका उसे सोचकर मन खिन्न हो जाता है। अनेक द्रावक क्षणोंमें आप अपने मनकी बात मुझसे कहते थे और जब पाते थे कि व्यवस्था आपके मनके अनुकूल नहीं हो पा रही है तो निराशासे भर उठते थे । श्रीमती रमा जैनके अनेकों पत्र अभी-अभी मैंने देखे जब उन्होंने बड़ी शालीनता और कुशलतासे प्रयत्न किया कि वैयक्तिक मत-भेद या दृष्टिकोण ज्ञानपीठकी प्रगतिमें बाधक न बने तथा संस्थामें सामञ्जस्य का वातावरण दृढ़ हो । वास्तवमें वे दिन ज्ञानपीठके प्रारम्भिक विकास के थे। उस समय, कहना चाहिये, ज्ञानपीठका अस्तित्व था ही नहीं। संस्थाकी स्थापनाकी प्रारंभिक कल्पना 'जैन ज्ञानपीठ' की थी। उसी नामसे पहला संकल्प-पत्र प्रकाशित हुआ और ज्ञानपीठका पहला प्रकाशन भी जैन ज्ञानपीठकी पताकाके अन्तर्गत हआ। वह प्रकाशन था 'आधुनिक जैन कवि' जिसके संपादनका दायित्व रमाजीको साह शान्तिप्रसादजीने न परिषदके कानपुरके खुले अधिवेशनमें कवि सम्मेलनकी परिसमाप्ति पर घोषित किया था। उससे कुछ समय पहले ही मैं साहजीके सचिवके रूप में डालमियानगरमें नियुक्त हआ था और जैन ज्ञानपीठ की स्थापनाको प्रारंभिक चर्चा चली थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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