SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ दिखाया गया । शायद इसीलिए मैं आज तक अपने दादाको खोजतो रही। समझ ही नहीं सकी कि वे अब इस लोकमें नहीं रहे । वे मुझे कभी छोड़ सकते हैं यह बात मेरे लिए कल्पनातीत थी। वे मेरे और मैं उनकी थी। होश संभालनेपर जहाँ-तहाँ, जाने-अनजाने विद्वानोंसे पूछती रही कि आप मेरे पिता पं० महेन्द्रकुमार जैनको जानते हैं। उत्तर मिलता हाँ कौन नहीं जानता। पर कोई नहीं बताता कहाँ हैं वे । सब कहते, वे प्रकाण्ड पण्डित थे, उनके लेखन, उदारता, वात्सल्य को बात जरूर बताते । और बता भी क्या सकते थे। कालचक्र आगे बढ़ता गया। पिताका वही दाँया हाथ, वरदहस्त बन हम सब अबोध भाई-बहनोंपर आर्शीवादकी अदृश्य बरसात करता रहा। पिता-प्रदत्त सारगर्भित नामोंके साथ हम घनघोर अभावमें बड़े हुए। बड़ी दो बहनें मणिप्रभा और प्रभादेवीके विवाह दादा ही ने सम्पन्न कर दिये थे । बड़े भाई पदम और अरविन्द जो उस समय मात्र १६ वर्ष और ९ वर्षके थे, आज अपने-अपने क्षेत्रके प्रतिष्ठित इन्जीनियर हैं। तब मात्र ७ वर्षकी बहन आशा आज प्रसिद्ध स्त्री-रोग-विशेषज्ञ हैं । लगता है पिताको पता था कि आशा ही उनके जीवनकी आशा बनेगी। तभी तो उसीके निमित्त स्मृति-ग्रन्थका यह दुरूह, महान कार्य आरम्भ हुआ और सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ जा रहा है । महाराज श्री ज्ञान-सागरजी की प्रेरणा रंग लायी। पिताजी की मृत्यु के लगभग साढ़े तीन दशक बाद यह स्वप्निल आशा साकार हो रही है। इस अपूर्व कार्य में आशाको पति अभयजी का अभयदान मिला और मुझे अपने पति संतोषजी द्वारा संतोष। मध्यप्रदेशके आदिवासी जिले सरगुजासे शुरू हुई शुरुआत समाप्त हो रही है । साथ ही पिताको ढूढनेकी हमारी अनवरत खोज भी आज हम सब भाई-बहनोंको सबके सहयोगसे हमारे दादा मिल गये। न्यायशास्त्र के तलस्पर्शी ज्ञाता • श्री बाबूलाल जैन फागुल्ल, वाराणसी मई सन १९४९ को भारतीय ज्ञानपीठके प्रांगणमें श्रद्धेय पं० महेन्द्रकुमारजीसे जो आत्मीयता मिली थी वह आज भी ताजी है। उनका असोम प्रेम हमें ज्ञानपीठके कार्यकर्ता होने के नाते ऐसा मिला था कि उसे भुलाया नहीं जा सकता । वे अद्वितीय प्रतिभाके धनी थे । अगाध पाण्डित्य पूर्ण प्रतिभा उन्हें विरासतमें मिली थी । न्यायशास्त्रका तलस्पर्शी ज्ञान इतना विशाल था कि उसकी तुलना नहीं की जा सकती । उनकी लौह लेखनीसे जिन ग्रंथोंका सम्पादन हुआ है वह उनकी प्रतिभा, अध्यवसाय, लगन और कर्मठताका परिचायक है । सहज रूपमें बड़ोसे बड़ी गुत्थीको सुलझानेको उनकी तीक्ष्णबुद्धिका काम था । बड़े-बड़े विद्वान् उनके सामने नतमस्तक हो जाते थे । उनका मौलिक चिन्तन अद्वितीय था। भारतीय ज्ञानपीठको प्रतिष्ठा बढ़ाने तथा उसे समुन्नत बनानेके लिये महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है और अन्तिम समय तक वे उसके प्रति समर्पित बने रहे। ऐसे महामनीषीके प्रति अपने श्रद्धासुमन समर्पित करते हुए गौरवका अनुभव कर रहा हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy