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________________ १/ संस्मरण : आदराञ्जलि : ३९ अनोखा व्यक्तित्व • डॉ. ऋषभचन्द्र जैन फौजदार, वैशाली पण्डित महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यके विषयमें कुछ भी लिखना सूर्यको दीपक दिखाना है । मुझे उनके दर्शनका भी मौका नहीं मिला, क्योंकि मेरे जन्मके पूर्व ही उनका देहावमान हो चुका था। फिर भी श्रद्धेय बाबूलालजी फागुल्लके स्नेहिल अनुरोधको स्वीकारते हुए दो शब्द लिखनेका साहस कर रहा हूँ। सर्वप्रथम मेरा उस जिनवाणी सेवक सरस्वती पुत्रके चरणोंमें शत-शत नमन । पण्डित महेन्द्र कुमारजी बचपनसे ही प्रतिभा सम्पन्न थे । अध्ययनके उपरान्त जब वे कार्यक्षेत्रमें उतरे तो उन्हें पं० कैलाशचन्द्र शास्त्रीका सान्निध्य मिला । पश्चात् वे पं० नाथूराम प्रेमी और पं० सुखलाल संघवी जैसे प्रकाण्ड विद्वानोंके सम्पर्क में आये। अनन्तर परस्पर आदान-प्रदान एवं सहयोगसे आपकी प्रतिभाको पल्लवित-पुष्पित होनेका भरपूर अवसर मिला । न्यायाचार्यजीको उच्चतर अध्ययन-अनुसन्धानकी विशेष प्रेरणा पं० नाथूराम प्रेमोसे प्राप्त हुई। पं० सुखलालजी की प्रज्ञादृष्टिसे प्रेरित होकर वे साहित्य साधना एवं अध्ययन-अनुसन्धानमें आकण्ठ डूब गये। उन्होंने अनेक दुरूह ग्रन्थोंका सम्पादन करके जैनदार्शनिक साहित्यकी श्रीवृद्धि की तथा भविष्यके अनुसन्धाताओंको एक नयी दष्टि प्रदान की। यह विशेष रूपसे उल्लेखनीय है । न्यायाचार्यजी ने एक-एक ग्रन्थके टिप्पण तैयार करने में शताधिक ग्रन्थोंका अध्ययन-मनन किया। तब कहीं तुलनात्मक टिप्पण या अन्य टिप्पणियाँ तैयार हो पायीं । उन्होंने दार्शनिक ग्रन्थोंके सम्पादनमें समालोचनात्मक पद्धति का प्रायः पहली बार प्रयोग किया, जो पश्चात्वर्ती विद्वानोंके लिए मार्गदर्शक बना । उन्होंने कई ग्रन्थोंका तो मलपाठ भो टीकाओंसे संजोकर तैयार किया। सम्पादन कार्यको पूर्णतः प्रदान करने हेतु पं० जी को अनेकों यात्राएँ करनी पड़ी तथा महीनों बाहर रहना पड़ा । उनकी प्रतिभा लगन और कार्य करनेकी क्षमता उत्तरवर्ती विद्वानों के लिए निःसन्देह प्रेरणास्पद है। उन्हें शत-शत नमन । पंडितजी द्वारा सम्पादित ग्रन्थोंकी प्रस्तावनाएँ शोधके क्षेत्रमें विशेष महत्वपूर्ण हैं । पण्डितजी स्वतंत्र चिंतक थे • श्री जमनालाल जैन, सारनाथ स्व. पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यसे मेरा पहला परिचय सन् १९५० में हुआ और फिर तो बनारसमें उनसे अनेक बार मिलने का अवसर मिला । मैं उनसे बहुत प्रभावित रहा। एक दिन पता नहीं किसी मडमें पंडितजीने मुझसे कहा कि 'तुम तो सर्वोदयी बन गये, अपने बेटेको सर्वोदयी मत बना देना !' मैं विचारमें पड़ गया ! आखिर यह बात उन्होंने क्यों कही? कौन-सी कसमसाहट है इसके पीछे ? क्या पंडितके पुत्रको पंडित नहीं बनना चाहिए? फिर दार्शनिक प्रणालियाँ क्या कहती है ? कौन किसका निर्माण करता है ? क्या सभी लोग अपनी अपनी नियति, कर्मफल भोग, भाग्य या संस्कार संप्रभावित होकर विभिन्न रास्तों पर नहीं चल पड़ते हैं ? पंडितका बेटा इंजीनियर बन जाता है, शराबीका बेटा संत बन जाता है। पारिवारिक, सामाजिक एवं सांस्कारिक, शैक्षणिक परिस्थितियाँ आदमीको कहींका कहीं पहुँचा देती हैं ! लेकिन पंडित महेन्द्रकुमारजीके कहने का तात्पर्य शायद यह था कि किसीको भी अपनी सन्तानको अभाव पूर्ण जीवनकी ओर नहीं धकेल देना चाहिए । उनका अपना अनुभव भी शायद प्रारंभिक दिनोंका यही रहा होगा कि समाजमें बड़े से बड़े विद्वान्का भी कोई आदर-सम्मान नहीं होता। समाज पंडित वर्गसे ज्ञानदानकी, ज्ञान चर्चा की अपेक्षाएँ तो रखता है, पर आर्थिक दृष्टिसे उन्हें अपना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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