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________________ ३८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति-ग्रन्थ स्याद्वाद-शासन के सजग- आदर्श प्रहरी • श्री अभिनंदन कुमार दिवाकर एडवोकेट, सिवनी नय विधाके अप्रतिम मनीषी निष्णात विद्वान् डॉ० पंडित महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने प्रमाण- नय संबंधी जिनागमके महान् उपकारी संरक्षक न्यायवेत्ता आचार्य भट्टाकलंक, आचार्य उमास्वामी आदि आचार्योंके क्लिष्ट ग्रंथोंका संपादन सरल, सुबोध, हृदयग्राही भाषा शैली में कर समाजका महान् उपकार किया है । पंडितजी की " जैनदर्शन" कृति अत्यंत सामयिक महत्वपूर्ण है । इसे पंडितजी की " कालजयी कृति" कहना अतिशयोक्ति नहीं है । जैनदर्शन के विविध पक्षोंका तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक विश्लेषण इसमें संबद्ध है, समाजकी एकांतवाद से ग्रसित कई कथित विद्वानों द्वारा अपने क्षुद्र स्वार्थीके वशीभूत होने अथवा अल्पज्ञताके कारण क्रमबद्ध पर्याय, निमित्त उपादान, व्यवहार - निश्चयनय सदृश आदि बहुचर्चित विषयों पर, जो दिग्भ्रमित किया गया है एवं किया जा रहा है, उसका निराकरण पंडितजी ने जो इस ग्रन्थ में किया है वह मुमुक्षुओं द्वारा विशेषरूप से पठनीय है। पं० जी द्वारा विश्लेषण अज्ञान तिमिरांधोंके लिये ज्ञानांजनशलाका के रूप है । स्मृति ग्रंथका प्रकाशन स्तुत्य हो । किन्तु किसी भी महापुरुषका सम्मान, मात्र उसकी मौखिक प्रशंसा नहीं । पंडितजी द्वारा सृजित साहित्य जिनागमके अध्यवसायियों के लिये मार्गदर्शक है । नयोंका ज्ञान अर्जित करनेके अभिलाषी मुमुक्ष युगों-युगों तक उनकी रचनाओं से लाभान्वित होंगे। जिनागम में विरोधाभासका किचित् स्थान नहीं । नयविधाके ज्ञानाभावके कारण अनेकांतदृष्टिको ओझल कर एकांत रूप में आचार्योंकी वाणीको प्रस्तुत करना जिनवाणीकी अवमानना है एवं स्व-पर-हित घातक है, इस तथ्यको पवित्र बुद्धिसे हृदयंगम कर तदनुसार आचरण करना पंडितजी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी । देखा तो नहीं, पर देख रहा हूँ उनको • श्री पवनकुमार शास्त्री, दीवान, मोरेना आज से लगभग ८ वर्ष पूर्व जब मेरे गृहनगर ललितपुरमें पू० क्षुल्लक श्री १०५ गुणसागरजी महाराज ( सम्प्रति उपाध्यायश्री १०८ ज्ञानसागरजी ) की प्रेरणा एवं उनके ही सानिध्य में सर्वप्रथम " जैन न्याय विद्या वाचना समारोह" का आयोजन किया गया था उद्घाटन सत्र की वेलामें जब प्रथम बार पं० दरबारीलालजी कोठियाके द्वारा न्यायाचार्योंकी श्रृंखलामें न्यायाचार्य श्री डॉ० महेन्द्रकुमारजी का नाम सुना तो कुछ नयापन सा प्रतीत हुआ, उनके अलावा भी अन्य वयोवृद्ध विद्वानोंसे भी जब श्री न्यायाचार्य जीके संस्मरण सुने तो सहज ही एक प्रबलेच्छा होती कि काश यदि आज उनसे प्रत्यक्ष भेंट कर पाता तो धन्य हो जाता, लेकिन आज स्मृति ग्रन्थको इस मंगलबेलामें उनके फोल्डरपर प्रकाशित चित्रको प्रथम बार देखकर एवं उनकी अल्पकालीन सशक्त श्रुतसेवा रूप व्यक्तित्वको देखकर यही लगता है कि वह हमसे दूर नहीं, हमारे समक्ष ही हैं । प्रतिवर्ष एक या दो परीक्षा उत्तीर्ण करनेवाला विशिष्ट ज्ञानावरण क्षयोपशम वाला ही होता है । न्याय जैसे जटिल विषयमें इतनी दक्षता प्राप्ति सहज संभव नहीं है । परन्तु अल्पायु होनेसे श्रुतसेवामें संलग्न रहते हुये जिनका जीवन समर्पित हो गया हो, उनके बारेमें अपनी विनम्र कुसुमांजलि अर्पित करते हुए यह कहना गलत नहीं होगा, कि उन्हें देखा तो नहीं, ( चर्म चक्षुओंसे ) पर देख रहा हूँ उनको ( चिन्तन चक्षुओंसे ) । स्मृति ग्रन्थकी इस मंगलबेला में पुनश्च शत-शत नमन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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