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________________ १ / संस्मरण : आदराञ्जलि : ३७ न्याय-शास्त्र के उदीयमान नक्षत्र • पं० कमलकुमार शास्त्री, टीकमगढ़ मेरी जीवन कलीने जब आँखें ही नहीं खोलो थीं उसके पूर्व ही डॉ० महेन्द्रकुमारजी अपना प्रकाश समस्त जैन जगतमें फैला चुके थे। मैंने तो उनके दर्शन एक दो बार ही कर पाये हैं उन दिनों में पढ़ रहा था और डॉ० सा० अनेक संस्थाओं में कार्य करते हुए प्रकाशमान नक्षत्र की तरह चमक रहे थे कि अचानक राहने उन्हें असमयमें ही ग्रस लिया। उन दिनों डॉ० सा के द्वारा न्याय विषय पर खोजपूर्ण लेख लोगोंको विस्मयमें डाल देते थे। लम्बा कद, भरा हुआ गठीला वदन, गोल चेहरे पर चमकता हुआ ओज, सफेद खादीका कुर्ता और चौड़ी पट्टीकी टोपी सहज ही पं० जीके व्यक्तित्वको शालीनता प्रदान कर रहे थे। मैंने एक दो बार ही दर्शन किए होंगे किन्तु आज भी आपका चेहरा हृदयमें अंकित है । एक बार उन्होंने सिद्धोंके केवलज्ञानकी एक नई चर्चा विद्वानों के समक्ष रखी। मुझे जहाँ तक याद है वह काफी चर्चाका विषय बनी थी। उनका कहना था कि केवलज्ञानी केवल अपनी आत्माको ही जानता है और देखता है उसे संसारके पदार्थोसे क्या मतलब है। आत्माका लक्षण उपयोगमयो है और उनका उपयोग आत्मरूप ही रहता है। क्या बताऊँ अगर कुछ दिनों और संसारमें रहते तो न्याय-शास्त्र एवं समाजका काफी ज्ञान विकासोन्मुख हो सकता था। मैं उनके प्रति अपनी श्रद्धाञ्जलि समर्पित करता है। शुभकामना • पं० नन्हेलाल जैन, एरौरा अकलंकके सदृश वर्तमानमें श्रद्धेय डॉ० महेन्द्रकुमारजी जैन प्रौढ़ विद्वानों में प्रथम थे । बौद्ध दर्शन-जैन न्यायके ज्ञाताके रूपमें डॉ० साहबके सदृश ज्ञानी विद्वानोंकी जरूरत है ताकि देश समाजको लाभान्वित कर सकें । मेरा उन्हें शत् शत् नमन है । शुभकामना • पं० लक्ष्मणप्रसाद शास्त्री, मडावरा सरस्वतीपुत्र डॉ० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य अपने विषयके अद्वितीय विद्वान् थे । उन्होंने अकलंकदेवके ग्रन्थोंका सम्पादन कर महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। आप स्वभावतः शान्त, सरल, मृदुभाषी और उच्च विचारोंके धनी थे। स्मृति ग्रन्थ प्रकाशनके प्रकुशलके अवसर मेरी श्रद्धांजलि उन्हें समर्पित है। श्रद्धाञ्जलि • स० सि० पं० रतनचन्द जैन शास्त्री बामौरकला न्यायाचार्य डॉ० महेन्द्रकुमारजी विद्यालय बीनामें मेरे सहपाठी रहे हैं। उनका मेरे ऊपर अपार प्रेम था । आत्मप्रिय मैत्री भुलाई नहीं जा सकती। उन्होंने समाजको जो दिया वह विस्मरणीय नहीं है । उनके सम्मानमें प्रकाशित स्मृति ग्रंथ अमर कीर्तिमान स्थापित करता रहेगा। मेरी श्रद्धाञ्जलि प्रस्तुत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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