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________________ १/ संस्मरण : आदराञ्जलि : ३३ प्रखर चेतना और लेखनी के धनी • डॉ० फूलचन्द जैन प्रेमी, वाराणसी पं० महेन्द्रकुमार जीसे कभी मिलनेका अवसर नहीं मिला किन्तु उनके बहुआयामी कृतित्वसे अत्यन्त प्रभावित हूँ। विविध जैन दार्शनिक ग्रन्थोंका जिस तरह वैज्ञानिक विधिसे जो सम्पादन कार्य उनके द्वारा किया गया वह अद्भुत ही नहीं अपितु भारतीय वाङ्मयको उनका बहुमल्य योगदान है। यद्यपि आ० प्रभाचन्द्र आदिके ग्रन्थोंका भी सम्पादन कार्य पं० जीने किया है, किन्तु आचार्य अकलंकके ग्रन्थोंसे भारतीय मनीषाको उन्होंने परिचित कराया वह अपने आपमें अभूतपूर्व ही है। मुख्यतः पं० जीके द्वारा सम्पादित कृतियों और उनके जैनदर्शन ग्रन्थको देख-पढ़ कर ही जैनेतर दार्शनिकोंने जैनधर्म-दर्शनकी महत्ता एवं महानताको स्वीकार किया। और इसीलिए इन ग्रन्थोंका विश्वविद्यालयीय स्तर पर पठन-पाठन भी सुलभ हो सका। वे मात्र प्राचीन दार्शनिक ग्रन्थोंके लेखक ही नहीं अपितु ज्ञानपीठ संस्था एवं ज्ञानोदय जैसी पत्रिकाको प्रतिष्ठापकोंमें से एक थे। उनके द्वारा धर्मयग, ज्ञानोदय तथा अन्यान्य पत्र-पत्रिकाओंमें प्रकाशित लेखोंके अध्ययनसे राष्ट्रीय एवं सामाजिक चेतनाका उनका स्वरूप भी सामने आता है। प्रखर चेतना और निर्भीक लेखनीके माध्यममे पं० जीने जैनदर्शनके क्षेत्रमें जैन आचार्योंकी अनेक मौलिक उद्भावनायें प्रस्तुत की। यथार्थवादी विवेचन और स्वाभाविक ऊर्जाके कारण उनकी प्रसिद्धि अधिक रही। उनके अप्रकाशित कार्यको भी मुझे देखनेका अवसर मिला है । उसे प्रकाशमें लाना भी हम सभीका दायित्व है। इस तरह पं० जीने जैनधर्म-दर्शन जगत्को जो कुछ भी दिया उसका मूल्य आँक पाना आसान नहीं है। क्योंकि इतने अल्प जीवनमें इतनी बड़ी साहित्यिक साधना उनकी अद्भुत मेधा, क्षमता घोतक है। ऐसे महान् व्यक्तित्व और कृतित्वसे सम्पन्न मनीषीको मेरा शतशः प्रणाम । जैनदर्शन साहित्य के अनन्य सेवक • शशिप्रभा जैन 'शशांक" डॉ० श्री महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य उद्भट विद्वान, अपूर्व व्याख्याता, जैनदर्शन साहित्यके अनन्य सेवक हैं उनकी विचारशैली और लेखनीका लोहा अनकेशः विद्वान् मानते रहे हैं और मानते हैं। उनकी सम्पादित कृतियों, साहित्योत्कर्षका अभिनन्दन करना स्तुत्य है । १९११ में श्रीयुत जवाहरलालजी पिताश्री और माता सुंदरबाई खुरईकी पुनीत कुँखसे जन्में डा० महेन्द्रजी समाजके अनमोल रत्न रहे हैं उनसे समाज और धर्मके प्रति गौरव है। व्यक्तित्व और स्वस्थ निरोगी काया जीवनका परमसुख है और इसे पाया था महेन्द्र भ्राताश्रीने । पं० महेन्द्रकुमारजी द्वारा लब्ध प्रतिष्ठित संस्था भारतीय ज्ञानपीठकी स्थापनामें उसके सर्वाङ्गीणविकासार्थ बहत श्रम किया तथा उसके संजाने संवारने, सर्वोपयोगी बनाने में जो महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है वह अभिनन्दनीय है इस संस्थासे प्रकाशित ज्ञानोदय पत्रिकाके सम्पादनमें जो कर्तव्य दायित्व आपने अपने साहित्य दर्शन प्रेमसे, प्रतिभा सम्पन्नतासे, श्रमसे, आत्मिक लग्न एकाग्रतासे दर्शाया है, वह अनुकरणीय है, स्तुत्य है। __ ऐसे महामनीषीके प्रति श्रद्धा-सुमन समर्पित करके गौरवका अनुभव करती हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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