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________________ ३४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति ग्रन्थ जिनवाणी माँ के अनन्य उपासक • डॉ० रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर मैंने श्रद्धेय पण्डित महेन्द्रकुमारजी के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं किये हैं; क्योंकि मेरे बनारस में छात्र जीवन प्रवेशसे पूर्व ही वे दिवंगत हो चुके थे, किन्तु उस समय बनारस में जैनाजैन विद्वत्मण्डली जो कि पण्डितजीके परिचयमें या सान्निध्यमें आयो थी, उससे मैंने पण्डितजी की प्रशंसा खूब सुनी है। उनका गुणगान करते हुए लोग अघाते नहीं थे। जैन, बौद्ध और भारतीय न्याय साहित्य वे तलस्पर्शी, मर्मज्ञ और अद्भुत विद्वान् थे । raft वे दीर्घजीवी नहीं हुए, किन्तु अपने जीवनके अल्पकालमें ही सिद्धिविनिश्चय, न्यायविनिश्चय, तत्त्वार्थवार्तिक, न्यायकुमुदचन्द्र जैसे अनेक ग्रन्थों के जो प्रामाणिक संस्करण निकाले, वे समाज और विद्वद्वर्गकी अमूल्य धरोहर बन गए। वे अद्वितीय प्रतिभा के धनी और जिनवाणी माँ के अनन्य उपासक थे । यदि वे अधिक समय जीवित रहते तो माँ जिनवाणीकी कितनी अमूल्य निधियोंका उद्धार करते, इस बातकी अब कल्पना भी नहीं की जा सकती है । उनके बाद उन जैसा न्यायशास्त्रका विद्वान् आज तक उत्पन्न नहीं हुआ । विद्वानोंको और समाजको ऐसी महान विभूति पर गर्व है । मैं पूज्य 'पण्डितजी के प्रति अपने हार्दिक श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ । असाधारण व्यक्तित्व के धनी • डॉ० कमलेशकुमार जैन, वाराणसी असाधारण व्यक्तित्व के धनी, स्वनामधन्य पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य अपनी अनूठी प्रतिभा एवं सूझबूझके कारण न केवल जैन नैयायिकों में प्रतिष्ठित थे, अपितु अपनी विद्वत्ता एवं सम्पादन - कलाके कारण प्राच्यविद्या अग्रगण्य मनीषियोंमें भी लब्धप्रतिष्ठ थे । उनकी लौह लेखनीसे प्रसूत 'जैनदर्शन' जैसी मौलिक कृतियाँ आज भी उनके गुण-गौरवको प्रकट करती हैं । प्राचीन ग्रन्थोंके सम्पादन एवं समीक्षा में उनकी गहरी पैठ थी । उनके द्वारा निर्णीत ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक तथ्य उनकी शोध-खोजके जीवन्त प्रतीक हैं । न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जैन अपने जीवन के प्रारम्भमें स्याद्वाद महाविद्यालय काशी में न्यायाध्यापक थे । वहाँ जैन न्यायके अध्ययन-अध्यापन एवं मनन- चिन्तन के कारण उनकी प्रतिभा दिन-प्रतिदिन निखरती गई और पूर्वपक्ष के रूपमें आये हुये विभिन्न दर्शनोंके अध्ययन-अध्यापनसे उनकी प्रतिभामें चार चाँद लग गये । वे समस्त भारतीय दर्शनों, विशेषकर जैन और बौद्धदर्शनोंके विशिष्ट ज्ञाता थे। साथ ही उक्त दर्शनोंका निरन्तर आलोडन-विलोडन करनेके कारण वे उसीमें रच-पच गये थे । भारतीय ज्ञानपीठ काशीकी स्थापना में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। जहाँ उनकी तरुणाईका लाभ भारतीय ज्ञानपीठको मिला है, वहीं उनके व्यक्तित्वको सजाने-सँवारने में भारतीय ज्ञानपीठका भी महनीय योगदान रहा है । दोनोंने परस्पर एक दूसरेका पर्याप्त लाभ लिया है । प्राचीन ग्रन्थोंके सम्पादनकी दृष्टि उन्हें आधुनिक जैनदर्शनके भीष्मपितामह पद्मश्री पं० सुखलालजी संघवीसे प्राप्त हुई थी, जिसका सदुपयोग करते हुए उन्होंने न्यायकुमुदचन्द्र एवं प्रमेयकमलमार्तण्ड जैसे जैन न्यायके दुरूह ग्रन्थोंका सम्पादन एवं विवेचन किया है । इस दुरूह कार्यके सम्पादनमें उनकी नैसर्गिक प्रतिभाके पदे पदे दर्शन होते हैं । उनका यह सम्पादन कार्य आधुनिक जैनविद्या के मनीषियोंके लिये आदर्श के रूप में चिरकाल तक मार्गदर्शन करता रहेगा । ऐसे विद्वान् के प्रति मैं अपनी श्रद्धाञ्जलि समर्पित करता हूँ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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