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________________ ३६२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ है। नैगमादि नयों का विवेचन वस्तु तत्त्वकी मीमांसा करनेकी दृष्टिसे है जब कि समयसारगत नयों का वर्णन अध्यात्म भावना को परिपुष्ट कर हेय और उपादेय के विचार से सन्मार्गमें लगाने के लक्ष्यसे है। निश्चय और व्यवहारके विचारमें सबसे बड़ा खतरा है-निश्चयको भतार्थ और व्यवहारको अभूतार्थ रहनेकी दृष्टिको न समझकर निश्चयकी तरफ झुक जाने और व्यवहार की उपेक्षा करने का। दूसरा खतरा है किसी परिभाषा को निश्चयसे और किसीको व्यवहारसे लगाकर घोल-घाल करने का । आ० अमृतचन्द्रने इन्हीं खतरोंसे सावधान करने के लिये एक प्राचीन गाथा उद्धृत' की है जदि जिणमयं पवज्जह तो-मा ववहारणिच्छए मुयह । जेण विणा छिज्जय तित्थं अण्णण ण तच्चं ।। अर्थात यदि जिनमत को प्राप्त होवे तो व्यवहार और निश्चयमें भेदको प्राप्त नहीं होना, किसी एक को छोड़ मत बैठना। व्यवहारके बिना तीर्थ का उच्छेद हो जायगा और निश्चयके बिना तत्त्वका उच्छेद होगा। कुछ विशेष अध्यात्म प्रेमी जैनदर्शनकी सर्वनय संतुलन पद्धतिको मनमें न रखकर कुछ इसी प्रकार का घोलघाल कर रहे हैं। वे एक परिभाषा एक नयकी तथा दूसरी परिभाषा दूसरे नयकी लेकर ऐसा मार्ग बना रहे हैं जो न तो तत्त्वके निश्चय में सहायक होता है और न तीर्थकी रक्षाका साधन ही सिद्ध हो रहा है। उदाहरणार्थ-निमित्त और उपादानकी व्याख्याको ही ले लें। निश्चयनयकी दृष्टिसे एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ नहीं करता । जो जिस रूपसे परिणत होता है वह उसका कर्ता होता है । इसकी दृष्टिसे कुम्हार घड़ेका कर्ता नहीं होता किंतु मृत्पिण्ड ही वस्तुतः घटका कर्ता है, क्योंकि वही घटरूपसे परिणत होता है । इसकी दृष्टिमें निमित्तका कोई महत्त्वका स्थान नहीं है क्योंकि यह नय पराश्रित व्यवहारको स्वीकार ही नहीं करता । व्यवहारनय परसापेक्षता पर भी ध्यान रखता है । वह कुम्हारको घटका कर्ता इसलिये कहता है कि उसके व्यापारसे मृत्पिण्डमेंसे वह आकार निकला है। घटमें मिट्टी ही उपादान है इसको व्यवहारनय मानता है। किन्तु कुम्भकार' व्यवहार वह 'मृत्पिण्ड' में नहीं करके कुम्हारमें करता है। 'घट' नामक कार्यकी उत्पत्ति मृत्पिड और कुम्भकार दोनों के सन्निधानसे हुई प्रत्यक्ष सिद्ध घटना है। किन्तु दोनों नयोंके देखने के दष्टिकोण जदे-जदे हैं । अब अध्यात्मी व्यक्ति कर्तत्वकी परिभाषा तो निश्चयनय पकड़ते हैं और कहते हैं कि हरएक कार्य अपने उपादानसे उत्पन्न होता है, अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यमें कुछ नहीं कर सकता । जिस समय जो योग्यता होगी उस समय वह कार्य अपनी योग्यतासे हो जायगा। और इस प्रति समयको योग्यताको सिद्धि के लिये सर्वज्ञताकी व्यावहारिक परिभाषाकी शरण लेते हैं । यह सही है कि समन्तभद्र आदि आचार्यों ने और इसके पहिले भी भूतबलि आचार्य ने इसी व्यावहारिक सर्वज्ञताका प्रतिपादन किया है और स्वयं कुन्दकुन्दने भी प्रवचनसारमें व्यावहारिक सर्वज्ञताका वर्णन किया है किन्तु यदि हम समन्तभद्र आदिकी व्यावहारिक सर्वज्ञताकी परिभाषा लेते हैं तो कार्योत्पत्तिकी क्रिया भी उन्हीं के द्वारा प्रतिपादित बाह्य और अन्तरंग उभय विध कारणोंसे जाननी चाहिए । अ कार्योत्पत्तिकी प्रक्रिया कुन्दकुन्दकी नैश्चयिक दृष्टिसे लेते हैं तो सर्वज्ञताकी परिभाषाकी नैश्चयिक ही माननी चाहिए । एक परिभाषा व्यवहारकी लेना और एक परिभाषा निश्चयकी पकड़कर घोलघाल करनेसे वस्तुका विपर्यास ही होता है। इसी तरह व्यावहारिक सर्वज्ञतासे नियतिवादको फलित करके उसे निश्चयनयका विषय बनाकर १. समयप्रा० आत्म० गा० १४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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