SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 546
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ३६३ पुरुषार्थको रेड मारना तीर्थोच्छेदकी ही कक्षामें आता है। तीर्थ प्रवर्तनका फल यह है कि व्यक्ति उसका आश्रय लेकर असत् से सत्, अशुभ से शुभ, अशुद्ध से शुद्ध और तम से प्रकाश की ओर जावें । परन्तु इस नियतिवादमें जब अपने अगले क्षणमें परिवर्तन करनेकी शक्यता हो नहीं है तब किसलिये तीर्थ-धर्मका आश्रय लिया जाय ? दीक्षा, शिक्षा और संस्कारका आखिर प्रयोजन ही क्या रह जाता है ? इस तरह जिनवरके दुरासद नयचक्रको नहीं समझकर और समग्र जैनशासनकी सर्वनयमयताके परिपूर्ण स्वरूपका ध्यान नहीं करके कहींकी ईंट और कहीं का रोड़ा लेने में न वस्तु तत्त्वकी रक्षा है और न तीर्थ की प्रभावना हो । आ० कुन्दकुन्दको अध्यात्मभावना आ० कुन्दकुन्दने अपने समय-प्राभत में अध्यात्म-भावनाका वर्णन किया है। उनका कहना है कि आत्मसंशोधन और शुद्धात्मकी प्राप्तिके लिये हमें इस प्रकारको भावना करनी चाहिए-कि निश्चयनय भूतार्थ है और व्यवहारनय अभूतार्थ है। जिस गाथा' में उन्होंने व्यवहारको अभूतार्थ और निश्चयनयको भूतार्थ की बात कही है । उसके पहिलेकी दो गाथाओं में वे आत्मभावना करने की बात कहते हैं। इतना ही नहीं, वे निश्चयनय से व्यवहारका निषेध करके निर्वाणकी प्राप्तिके लिये निश्चयनयमें लोन होनेका उपदेश करते हैं "एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण । णिच्छयणयसल्लीणा पुन मुणिणो पावन्ति णिव्वाणं ॥" -समयप्रा० गा० २९६ । अर्थात् - इस तरह निश्चयनयकी दृष्टिसे व्यवहारनय का प्रतिषेध समझना चाहिये । निश्चयनयमें लीन मुनिजन निर्वाण पाते हैं। इसी तरह उन्होंने और भी मोक्षमार्गी साधकको जीवन-दर्शनकी तथा आत्म-संशोधनकी प्रक्रिया और भावनाएँ बताई है जिनसे चित्तको भावितकर साधक शान्तिलाभ कर सकता है। परन्तु भावनासे वस्तुस्वरूपका निरूपण नहीं होता । वही कुन्दकुन्द जब वस्तु स्वरूपका निरूपण करने बैठते हैं तो प्रवचनसार व पंचास्तिकाय का समस्त तत्त्व वर्णन उभयनय समन्वित अनेकान्तदष्टिसे होता है। भावनाको तत्त्वज्ञानका रूप देनेसे जो विपर्यास और खतरा होता है तथा उसके जो कूपरिणाम होते हैं वे किसी भी दर्शनके इतिहासके विद्यार्थीसे छिपे नहीं है। बद्ध ने स्त्री आदिसे विरक्तिके लिये उसमें क्षणिक परमाणुपुंज स्वप्नोपम मायोपम शून्य आदि की भावना करनेका उपदेश दिया। पीछे उन एक-एक भावनाओंको तत्त्वज्ञानका रूप देनेसे क्षणिकवाद, परमाणपुञ्जवाद, शन्यवाद आदि वादों की सृष्टि हो गई और पोछे तो उन्हें दर्शनका रूप ही मिल गया। जैन परम्परामें भी मुमुक्षुओंको अनित्य, अशरण, अशुचि आदि -समयप्रा० गा०१३. १. "ववहारोऽभू दत्थो भूदत्थो देसिहो हु सुद्धणओ। भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ।' "णाणम्हि भावना खलु कादवा दंसणे चरित्ते य । ते पुण तिण्णिदि आदा तम्हा कुण भायणं आदे ॥ जो आदभावणमिणं णिच्चुवजुत्तो मुणी समाचरदि । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि-अचिरेण कालेण ।।" -समयप्रा० गा० ११११२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy