SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 387
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ जो कषाय न होनेसे आगे बन्धनका कारण नहीं होता। यह आस्रव जीवन्मुक्त महात्माओंके वर्तमान शरीरसम्बन्ध तक होता रहता है । यह जीवस्वरूपका विघातक नहीं होता। प्रथम साम्परायिक आस्रव कषायानुरंजित योगसे होनेके कारण बन्धक होता है। कषाय और योग प्रवृत्ति शुभरूप भी होती है और अशुभरूप भी। अतः शुभ और अशुभ योगके अनुसार आस्रव भी शुभास्रव या पुण्यास्रव और अशभास्रव अर्थात् पापास्रवके भेदसे दो प्रकारका हो जाता है। साधारणतया सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र ये पुण्य कर्म हैं और शेष ज्ञानावरण आदि घातिया और अधातियाँ कमप्रकृतियाँ पापरूप हैं । इस आस्रवमें कषायों के तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, आधार और शक्ति आदिकी दृष्टिसे तारतम्य होता है । संरम्भ ( संकल्प ), सामारंभ ( सामग्री जुटना ), आरम्भ ( कार्यकी शुरुआत, कृत (स्वयं करना), कारित ( दूसरोंसे कराना), अनुमत ( कार्यकी अनुमोदना करना) मन, वचन, काय, योग और क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषायें परस्पर मिलकर ३४३४३४४४१०८ प्रकारके हो जाते हैं । इनसे आस्रव होता है । आगे ज्ञानावरण आदि कर्मोमें प्रत्येकके आस्रव कारण बताते हैं ज्ञानावरण, दर्शनावरण-ज्ञानी और दर्शनयुक्त पुरुषकी या ज्ञान और दर्शनकी प्रशंसा सुनकर भीतरी द्वेषवश उनकी प्रशंसा नहीं करना तथा मनमें दुष्टभावोंका लाना ( प्रदोष ) ज्ञानका और ज्ञानके साधनोंका अपलाप करना (निह्नव ) योग्य पात्रको भी मात्सर्यवश ज्ञान नहीं देना, ज्ञानमें विघ्न डालना, दूसरेके द्वारा प्रकाशित ज्ञानको अविनय करना, ज्ञानका गुण कीर्तन न करना, सम्यग्ज्ञानको मिथ्याज्ञान कहकर ज्ञानके नाशका अभिप्राय रखना आदि यदि ज्ञानके सम्बन्धमें हैं तो ज्ञानावरणके आस्रवके कारण होते है और यदि दर्शनके सम्बन्धमें हैं तो दर्शनावरणके आस्रवके कारण हो जाते हैं । इसी तरह आचार्य और उपाध्यायसे शत्रुता रखना, अकाल अध्ययन , अरुचिपूर्वक पढ़ना, पढ़ने में आलस करना, व्याख्यानको अनादरपूर्वक सुनना, तीर्थोपरोध, बहश्रतके समक्ष भी ज्ञानका गर्व करना, मिथ्या उपदेश देकर दसरेके मिथ्या ज्ञानमें कारण बनना, बहुश्रुतका अपमान करना, लोभादिवश तत्त्वज्ञानके पक्षका त्याग करके अतत्त्वज्ञानीय पक्षको ग्रहण करना, असम्बद्ध प्रलाप, सूत्र विरुद्ध व्याख्यान, कपटसे ज्ञानार्जन करना, शास्त्र विक्रय आदि जितने ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञानके साधनोंमें विघ्न और द्वेषोत्पादक भाव और क्रियाएँ होती हैं उन सबसे आत्मापर ऐसा संस्कार पड़ता है जो ज्ञानावरण कर्मके आस्रवका हेतू होता है। देव, गुरु आदिके दर्शनमें मात्सर्य करना, दर्शनमें अन्तराय करना, किसीकी आँख फोड़ देना, इन्द्रियोंका अभिमान करना, नेत्रोंका अहंकार करना, दीर्घ निद्रा, अतिनिद्रा, आलस्य, सम्यग्दृष्टिमें दोषोद्भावन, कुशास्त्र प्रशंसा, गुरुजुगुप्सा आदि दर्शनके विधातक भाव और क्रियाएँ दर्शनावरणका आस्रव कराती है। असातावेदनीय-अपने में परमें और दोनोंमें दुःख शोक आदि उत्पन्न करनेसे आसातावेदनीयका आस्रव होता है। स्व पर या उभयमें दुःख उत्पन्न करना, इष्टवियोगमें अत्यधिक विकलता और शोक करना, निन्दा, मानभंग या कर्कशवचन आदिसे भीतर ही भीतर जलना, परितापके कारण अश्रुपातपूर्वक बहु विलाप करना, छाती कूटकर या सिर फोड़कर आक्रन्दन करना, दुःखसे आँखें फोड़ लेना या आत्महत्या कर लेना, इस प्रकार रोना-चिल्लाना कि सुननेवाले भी रो पड़ें, शोक आदिसे लंघन करना, अशुभ प्रयोग, परनिन्दा, पिशुनता, अदया, अंग-उपांगोंका छेदन भेदन ताड़न, त्रास, अँगुली आदिसे तर्जन करना, वचनोंसे भर्त्सना करना, रोधन, बंधन, दमन, आत्म प्रशंसा, क्लेशोत्पादन, बहुपरिग्रह , आकुलता, मन, वचन, कायकी कुटिलता, पाप कार्योंसे आजीविका करना, अनर्थदण्ड, विषमिश्रण, बाण जाल पिंजरा आदिका बनाना इत्यादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy