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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : २०३० ही है, साथही साथ हिंसाकी भूमिका भी तैयार होने लगती है। हिंसाके मुख्य हेतुओं में प्रमादका स्थान ही प्रमुख है । बाह्य में जीवका घात हो या न हो किन्तु असावधान और प्रमादी व्यक्तिको हिमाका दोष सुनिश्चित है। प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले अप्रमत्त साधकके द्वारा बाह्य हिंसा होनेपर भी वह अहिंसक है । अतः प्रमाद आस्रवका मुख्य द्वार है । इसीलिए भ० महावीरने बारबार गौतम गणधरको चेताया है कि "समयं गोयम मा पमादए।" अर्थात गौतम, किसी भी समय प्रमाद न करो। कषाय-आत्माका स्वरूप स्वभावतः शान्त और निर्विकारी है। परन्तु क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाएँ आत्माको कस देती हैं और इसे स्वरूपच्युत कर देती हैं। ये चारों आत्माकी विभाव दशाएँ हैं । क्रोधकषाय द्वेष रूप है यह द्वेषका कार्य और द्वेषको उत्पन्न करती है। मान यदि क्रोधको उत्पन्न करता है तो द्वेष रूप है । लोभ रागरूप है । माया यदि लोभको जागृत करती है तो रागरूप है। तात्पर्य यह कि राग, द्वेष, मोहकी दोषत्रिपुटीमें कषायका भाग हो मुख्य है । मोहरूप मिथ्यात्व दूर हो जानेपर भी सम्यग्दृष्टिको राग-द्वेष रूप कषायें बनी रहती हैं। जिसमें लोभ कषाय तो पदप्रतिष्ठा और यशोलिप्साके रू मुनियोंको भी स्वरूपस्थित नहीं होने देतो। यह रागद्वेष रूप द्वन्द्व ही समस्त अनर्थोंका मूल हेतु है । यही प्रमुख आस्रव है । न्यायसूत्र, गीता और पाली पिटकोंमें भी इसी द्वन्द्वको ही पापमल बताया है। जैनशास्त्रोंका प्रत्येक वाक्य कषायशमनका ही उपदेश देता है। इसीलिए जैनमतियाँ वीतरागता और अकिञ्चनताकी प्रतीक होती है। उसमें न द्वेषका साधन आयुध है और न रागका आधार स्त्री आदिका साहचर्य ही। वे तो परम वोतरागता और अकिंचनताका पावन सन्देश देती हैं। इन कषायोंके सिवाय-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ( ग्लानि) स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद यो ९ नोकषायें हैं। इनके कारण भी आत्मामें विकार परिणति उत्पन्न होती है। अतः ये भी आस्रव हैं। योग-मन, वचन और कायके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंमें जो परिस्पन्द अर्थात् क्रिया होती है उसे योग कहते हैं। योगकी साधारण प्रसिद्धि चित्तवृत्तिनिरोध रूप ध्यानके अर्थ में है पर जैन परम्परामें चूंकि मन, वचन और कायसे होनेवाली आत्माको क्रिया कर्मपरमाणुओंसे योग अर्थात् सम्बन्ध कराने में कारण होती है अतः इसे योग कहते हैं और योगनिरोधको ध्यान कहते हैं। आत्मा सक्रिय है। उसके प्रदेशोंमें परिस्पन्द होता है। मन, वचन और कायके निमित्तसे सदा उसमें क्रिया होती रहती है। यह क्रिया जीवन्मक्तको भी बराबर होती है। परमुक्तिसे कुछ समय पहिले अयोगकेवली अवस्थामें मन, वचन, कायकी क्रियाका निरोध होता है और आत्मा निर्मल और निश्चल बन जाता है । सिद्ध अवस्थामें आत्माके पूर्ण शुद्धरूपका आविर्भाव होता है न उनमें कर्मजन्य मलिनता रहती और न योगजन्य चंचलता ही। प्रधानरूपसे आस्रव तो योग ही है। इसीके द्वारा कर्मोंका आगमन होता है । शुभ योग पुण्यकर्मका आस्रव कराता है तथा अशुभ योग पापकर्मके आस्रवका कारण होता है । सबका शुभचिन्तन तथा अहिंसक विचारधारा शभ मनोयोग है। हित मित प्रिय सम्भाषण शुभ वचनयोग है। परको बाधा न देनेवाली यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति शुभ काययोग है। इस तरह इस आस्रव तत्त्वका ज्ञान मुमुक्षुको अवश्य ही होना चाहिए। साधारण रूपसे यह तो उसे ज्ञात कर ही लेना चाहिए कि हमारी अमुक प्रवृत्तियोंसे शुभास्रव होता है और अमुक प्रवृत्तियोंसे अशुभास्रव, तभी वह अनिष्ट प्रवृत्तियोंसे अपनी रक्षा कर सकेगा। सामान्यतया आस्रव दो प्रकारका होता है-एक तो कषायानुरञ्जित योगसे होनेवाला साम्परायिक आस्रव जो बन्धका हेतु होकर संसारको वृद्धि करता है तथा दूसरा केवल योगसे होनेवाला ईर्यापथ आस्रव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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