SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 385
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ स्कन्धमें स्थिति और अनुभाग पड़ेगा। इन आस्रवोंमें मुख्य अनन्तकर्मबन्धक आस्रव है मिथ्यात्व अर्थात् मिथ्यादृष्टि । यह जीव अपने आत्मस्वरूपको भूलकर शरीरादि पर द्रव्योंमें आत्मबुद्धि करता है और इसके समस्त विचार और क्रियाएँ उन्हीं शरीराश्रित व्यवहारोंमें उलझी रहती हैं। लौकिक यशोलाभ आदिकी दृष्टिसे ही यह धर्म जैसी क्रियाओं का आचरण करता है । स्व पर विवेक नहीं रहता । पदार्थोंके स्वरूपमें भ्रान्ति बनी रहती है । तात्पर्य यह कि लक्ष्यभूत कल्याणमार्ग में ही इसकी सम्यक् श्रद्धा नहीं होती । वह सहज और गृहीत दोनों प्रकार की मिथ्यादृष्टियोंके कारण तत्त्वरुचि नहीं कर पाता । अनेक प्रकारकी देवगुरु तथा लोकमूढ़ताओंको धर्म समझता है। शरीर और शरीराश्रित स्त्री- पुत्र कुटुम्बादिके मोहमें उचित, अनुचितका विवेक किए बिना भीषण अनर्थ परम्पराओंका सृजन करता है । तुच्छ स्वार्थ के लिए मनुष्य जीवनको व्यर्थ ही खो देता है । अनेक प्रकारके ऊँच-नीच भेदोंकी सृष्टि करके मिथ्या अहंकारका पोषण करता है। जिस किसी भी देवको, जिस किसी भी वेषधारी गुरुको, जिस किसी भी शास्त्रको भय आशा स्नेह और लोभसे मानने को तैयार हो जाता है । उसका अपना कोई सिद्धान्त है और न व्यवहार । थोड़ेसे प्रलोभनसे वह सब अनर्थ करने को प्रस्तुत हो जाता है । जाति, ज्ञान, पूजा, कुल, बल, ऋद्धि, तप और शरीर आदिके कारण मदमत्त होता है और अन्योंको तुच्छ समझकर उनका तिरस्कार करता है। भय, आकांक्षा, घृणा, अन्यदोषप्रकाशन आदि दुर्गुणोंका केन्द्र होता है । इसकी प्रवृत्तिके मूलमें एक ही बात है और वह स्व-स्वरूपविभ्रम । उसे आत्मस्वरूपका कोई श्रद्धान नहीं । अतः वह बाह्य पदार्थोंमें लुभाया रहता है । यही मिथ्यादृष्टि सब दोषोंकी जननी है, इसीसे अनन्त संसारका बन्ध होता है । दर्शनमोहनीय नामक कर्मके उदयमें यह दृष्टिमूढ़ता होती है । अविरति - चारित्रमोह नामक कर्मके उदयसे मनुष्यको चारित्र धारण करनेके परिणाम नहीं हो पाते । वह चाहता भी है तो भी कषायोंका ऐसा तीव्र उदय रहता है जिससे न तो सकलचारित्र धारण कर पाता है और न देशचारित्र । कषाएँ चार प्रकारकी हैं १ - अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ - अनन्त संसारका बंध करानेवाली, स्वरूपाचरणचारित्रका प्रतिबन्ध करनेवाली, प्रायः मिथ्यात्वसहचारिणी कषाय । पत्थरकी रेखाके समान । २ - अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ - देशचारित्र अणुव्रतोंको धारण करनेके भावोंको न होने देनेवाली कषाय । इसके उदयसे जीव श्रावक के व्रतोंको भी ग्रहण नहीं कर पाता । मिट्टीके रेखाके समान । ३ - प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ-सम्पूर्ण चारित्रकी प्रतिबन्धिका कषाय । इसके उदयसे जीव सकल त्याग करके सम्पूर्ण व्रतोंको धारण नहीं कर पाता । धूलि रेखाके समान । ४ -संज्वलन क्रोध मान माया लोभ - पूर्ण चारित्र में किंचिन्मात्र दोष उत्पन्न करनेवाली कषाय । यथाख्यातचारित्रकी प्रतिबन्धिका । जलरेखाके समान । इस तरह इन्द्रियोंके विषयोंमें तथा प्राणसंयममें निरर्गल प्रवृत्ति होनेसे कर्मोंका आस्रव होता है । अविरतिका निरोधकर विरतिभाव आनेपर कर्मोंका आस्रव नहीं होता । प्रमाद - असावधानीको प्रमाद कहते हैं । कुशल कर्मोंमें अनादरका भाव होना प्रमाद है । पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंमें लीन होनेके कारण, राजकथा, चोरकथा, स्त्रीकथा और भोजनकथा इन चार विकथाओंमें रस लेनेके कारण, क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायोंमें लिप्त रहनेके कारण, निद्रा और प्रणयमग्न होनेके कारण कर्त्तव्यपथ में अनादरका भाव होता है । इस असावधानीसे कुशलकर्मके प्रति अनास्था तो होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy