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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : १९७ आत्मदृष्टि ही बन्धोच्छेदिका-विश्वका प्रत्येक द्रव्य अपने गुण और पर्यायोंका स्वामी है । जिस तरह अनन्त चेतन अपना पृथक अस्तित्व रखते हैं उसी तरह अनन्त पुद्गल परमाणु एक धर्म द्रव्य ( गति सहायक ), एक अधर्म द्रव्य ( स्थिति सहकारी), एक आकाशद्रव्य (क्षेत्र ) असंख्य कालाणु अपना पृथक् अस्तित्व रखते हैं । प्रत्येक द्रव्य प्रति समय परिवर्तित होता है । परिवर्तनका अर्थ विलक्षण परिणमन ही नहीं होता। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश और कालद्रव्य इनका विभाव परिणमन नहीं होता, ये सदा सदृश परिणमन ही करते हैं । प्रतिक्षण परिवर्तन होनेपर भी एक जैसे बने रहते हैं । इनका शुद्ध परिणमन ही रहता है । रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाले पुद्गल परमाणु प्रतिक्षण शुद्ध परिणमन भी करते हैं । इनका अशुद्ध परिणमन है स्कन्ध बनना। जिस समय ये शुद्ध परमाणुकी दशामें रहते हैं उस समय इनका शुद्ध परिणमन होता है और जब ये दो या अधिक मिलकर स्कन्ध बन जाते हैं तब अशुद्ध परिणमन होता है। जीव जबतक संसार दशामें है और अनेकविध सूक्ष्म कर्मशरीरसे बद्ध होनेके कारण अनेक स्थूल शरीरोंको धारण करता है तब तक इसका विभाव या विकारी परिणमन है । जब स्वरूप-बोधके द्वारा पर पदार्थोंसे मोह हटाकर स्वरूपमात्रमग्न होता है तब स्थूल शरीरके साथ ही सूक्ष्म कर्मशरीरका भी उच्छेद होनेपर निर्विकार शुद्ध चैतन्य भाव हो जाता है और अनन्त कालतक अपनी शुद्ध चिन्मात्र दशामें बना रहता है। फिर इसका विभाव या अशुद्ध परिणमन नहीं होता क्योंकि विभाव परिणमनकी उपादानभूत रागादि सन्तति उच्छिन्न हो चुकी है। इस प्रकार द्रव्य स्थिति है। जो पर्याय प्रथमक्षणमें है वह दूसरे क्षणमें नहीं रहती है। कोई भी पर्याय दो क्षण ठहरनेवाली नहीं है। प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायका उपादान है । दूसरा द्रव्य चाहे वह सजातीय हो या विजातीय, निमित्त ही हो सकता है, उपादान नहीं। पुद्गलमें अपनी योग्यता ऐसी है जो दूसरे परमाणुसे सम्बन्ध करके स्वभावतः अशुद्ध बन जाता है पर आत्मा स्वभावसे अशुद्ध नहीं बनता। एक बार शुद्ध होनेपर वह कभी भी फिर अशुद्ध नहीं होगा। इस तरह इस प्रतिक्षण परिवर्तनशील अनन्तद्रव्यमय लोकमें मैं एक आत्मा हूँ। मेरा किसी दूसरे आत्मा या पुद्गल आदि द्रव्योंसे कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं अपने चैतन्यका स्वामी हूँ, मात्र चैतन्यरूप हूँ। यह शरीर अनन्त पुद्गल परमाणुओंका एक पिण्ड है, इसका मैं स्वामी नहीं हूँ। यह सब पर द्रव्य है । इसके लिए पर पदार्थों में इष्ट अनिष्ट बुद्धि करना हो संसार है। मैं एक व्यक्ति हूँ। आजतक मैंने पर पदार्थोंको अपने अनुकूल परिणमन करानेकी अनधिकार चेष्टा की। मैंने यह भी अनधिकार चेष्टा की कि संसारके अधिकसे अधिक पदार्थ मेरे अधीन हों, जैसा मैं चाहँ वैसा परिणमन करें। उनकी वृत्ति मेरे अनुकूल हो । पर मर्ख. त तो एक व्यक्ति है। अपने परिणमन पर अर्थात् अपने विचारोंपर और अपनी क्रियापर ही अधिकार रख सकता है, पर पदार्थोपर तेरा वास्तविक अधिकार क्या है ? यह अनधिकार चेष्टा ही रागद्वेषको उत्पन्न करती है । तू चाहता है कि-शरीर प्रकृति स्त्री पुत्र परिजन आदि सब तेरे इशारेपर चलें, संसारके समस्त पदार्थ तेरे अधीन हों, तु त्रैलोक्यको इशारेपर नचानेवाला एकमात्र ईश्वर बन जाय । पर यह सब तेरी निरधिकार चेष्टाएँ हैं । तू जिस तरह संसारके अधिकतम पदार्थोंको अपने अनुकूल परिणमन कराके अपने अधीन करना चाहता है उसी तरह तेरे जैसे अनन्त मढ़ चेतन भी यही दुर्वासना लिए हैं और दूसरे द्रव्योंको अपने अधीन करना चाहते हैं। इसी छीनाझपटीमें संघर्ष होता है, हिंसा होती है, रागद्वेष होता है और अन्ततः दुःख । सुख और दुःखकी स्थूल परिभाषा यह है कि 'जो चाहे सो होवे' इसे कहते हैं सुख और 'चाहे कुछ और होवे कुछ, या जो चाहे सो न हो' यही है दुःख । मनुष्यकी चाह सदा यही रहती है कि मुझे सदा इष्टका संयोग रहे, अनिष्टका संयोग न हो, चाहके अनुसार समस्त भौतिक जगत् और चेतन परिणत होते रहें, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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