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________________ १९८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ शरीर चिर यौवन रहे, स्त्री स्थिरयौवना हो, मृत्यु न हो, अमरत्व प्राप्त हो, धन-धान्य हों, प्रकृति अनुकूल रहे, और न जाने कितनी प्रकारकी 'चाह' इस शेखचिल्ली मानवको होती रहती है। उन सबका निचोड़ यह है कि जिन्हें हम चाहें उनका परिणमन हमारे इशारेपर हो, तब इस मढ मानवको क्षणिक सुखका आभास हो सकता है । बुद्ध ने जिस दुःख को सर्वानुभूत बताया वह सब अभावकृत ही तो है। महावीरने इस तृष्णाका कारण बताया-स्वरूपरूपकी मर्यादाका अज्ञान । यदि मनुष्यको यह पता हो कि जिनकी मैं चाह करता हूँ, जिनकी तृष्णा करता हूँ वे पदार्थ मेरे नहीं हैं, मैं तो एक चिन्मात्र हूँ, तो उसे अनुचित तृष्णा ही उत्पन्न न होगी। इस मानवने अपने आत्माके स्वरूप और उसके अधिकारकी सीमाको न जानकर सदा मिथ्या आचरण किया और पर पदार्थोके निमित्तसे जगत्में अनेक कल्पित ऊँच-नीच भावोंकी सृष्टि कर मिथ्या अहंकारका पोषण किया । शरीराश्रित या जीविकाश्रित ब्राह्मण क्षत्रियादि वर्गों को लेकर ऊँच-नीच व्यवहारको भेदक भित्ति खड़ीकर मानवको मानवसे इतना जुदा कर दिया जो एक उच्चाभिमानी मांसपिड दूसरेकी छायासे या दूसरेको छनेसे अपनेको अपवित्र मानने लगा । बाह्य परपदार्थों के संग्रही और परिग्रहीको सम्राट राजा आदि संज्ञा तृष्णाकी पूजा की। इस जगत्में जितने संघर्ष और हिंसाएँ हुई हैं वे सब पर पदार्थोकी छीनाझपटीके कारण ही हुई हैं । अतः जब तक मुमुक्षु अपने वास्तविक रूपको तथा तृष्णाके मूल कारण 'परत्र आत्मबुद्धि'को नहीं समझ लेता तब तक दुःखनिवृत्तिकी समुचित भूमिका ही तैयार नहीं हो सकती । बुद्धने संक्षेपमें पंच स्कन्धोंको दुःख कहा है, पर महावीरने उसके भीतरी तत्त्वज्ञानको बताया-चूंकि ये स्कन्ध आत्मरूप नहीं है अतः इनका संसर्ग ही अनेक रागादिभावोंका सर्जक है, अतः ये दुःखस्वरूप है। अतः निराकुल सुखका उपाय आत्ममात्रनिष्ठा और पर पदार्थोंसे ममत्वका हटाना ही है। इसके लिए आत्मदृष्टि ही आवश्यक है। आत्मदर्शनका उपर्युक्त प्रकार परपदार्थों में द्वेष करना नहीं सिखाता किन्तु यह बताता है कि इनमें जो तुम्हारी तृष्णा फैल रही है वह अनधिकार चेष्टा है । वास्तविक अधिकार तो तुम्हारा अपने विचार और अपनी प्रवृत्तिपर ही है। इस तरह आत्माके वास्तविक स्वरूपका परिज्ञान हुए बिना दुःखनिवृत्ति या मुक्तिकी संभावना ही नहीं की जा सकती । अतः धर्मकीर्तिकी यह आशंका भी निर्मूल है कि "आत्मनि सति परसंज्ञा स्वपरविभागात् परिग्रहद्वेषौ। अनयोः संप्रतिबद्धाः सर्वे दोषाः प्रजायन्ते ॥"-प्रमाण वा० ११२२१ अर्थात् आत्माको माननेपर दूसरोंको पर मानना होगा। स्व और पर विभाग होते ही स्वका परिग्रह और परसे द्वेष होगा। परिग्रह और द्वेष होनेसे रागद्वेषमूलक सैकड़ों अन्य दोष उत्पन्न होते हैं । यहाँ तक तो ठीक है कि कोई व्यक्ति आत्माको स्व और आत्मेतरको पर मानेगा । पर स्व-परविभागसे परिग्रह और द्वेष कैसे होंगे ? आत्मस्वरूपका परिग्रह कैसा? परिग्रह तो शरीर आदि पर पदार्थोंका और उसके सुखसाधनोंका होता है जिन्हें आत्मदर्शी व्यक्ति छोड़ेगा ही, ग्रहण नहीं करेगा । उसे तो जैसे स्त्री आदि सुखसाधनपर है वैसे शरीर भी। राग और द्वेष भी शरीरादिके सुखसाधनों और असाधनोंसे होते हैं सो आत्मदर्शीको क्यों होंगे? उलटे आत्मदृष्टा शरीरादिनिमित्तक यावत् रागद्वेष द्वन्द्वोंके त्यागका ही स्थिर प्रयत्न करेगा। हाँ, जिसने शरीरस्कन्धको ही आत्मा माना है उसे अवश्य आत्मदर्शनसे शरीरदर्शन प्राप्त होगा और शरीरके इष्टानिष्टनिमित्तक पदार्थों में परिग्रह और द्वेष हो सकते हैं, किन्तु जो शरीरको भी पर ही मान रहा है तथा दुःखका कारण समझ रहा है वह क्यों उसमें तथा उसके इष्टानिष्ट साधनोंमें रागद्वेष करेगा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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