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________________ १९६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थं कर्मके निमित्तसे भी होता है। अतः कर्म निमित्तके हट जानेपर आत्मा अपने अन्तिम आकारमें रह जाता है और ऊर्ध्व लोकमें लोकाग्रभागमें स्थिर हो अपने अनन्त चैतन्यमें प्रतिष्ठित हो जाता है। इस आत्माका स्वरूप उपयोग है। आत्माकी चैतन्यशक्तिको उपयोग कहते हैं। यह चिति शक्ति बाह्य अभ्यन्तर कारणोंसे यथासंभव ज्ञानाकार पर्यायको और दर्शनाकार पर्यायको धारण करती है। जिस समय यह चैतन्यशक्ति ज्ञेयको जानती है उस समय साकार होकर ज्ञान कहलाती है तथा जिस समय मात्र चैतन्याकार रहकर निराकर रहती है तब दर्शन कहलाती है । ज्ञान और दर्शन क्रमसे होनेवाली पर्याएँ हैं । निरावरण दशामें चैतन्य अपने शुद्ध चैतन्य रूपमें लीन रहता है। इस अनिर्वचनीय स्वरूपमात्र प्रतिष्ठित आत्ममात्र दशाको ही निर्वाण कहते हैं। निर्वाण अर्थात् वासनाओंका निर्वाण । स्वरूपसे अमर्तिक होकर भी यह आत्मा अनादि कर्मबन्धनबद्ध होने के कारण मूर्तिक हो रहा है और कर्मबन्धन हटते ही फिर अपनी शुद्ध अमूर्तिक दशामें पहुँच जाता है । यह आत्मा अपनी शुभ-अशुभ परिणतियोंका कर्ता है। और उनके फलोंका भोवता है। उसमें स्वयं परिणमन होता है। उपादान रूपसे यही आत्मा रागद्वेष मोह अज्ञान क्रोध आदि विकार परिणामोंको धारण करता है और उसके फलोंको भोगता है । संसार दशामें कर्मके अनुसार नानाविध योनियों में शरीरोंका धारण करता है पर मुक्त होते ही स्वभावतः ऊर्ध्वगमन करता है और लोकाग्रभागमें सिद्धलोकमें स्वरूपप्रतिष्ठित हो जाता है। अतः महावीरने बन्ध मोक्ष और उसके कारणभूत तत्त्वोंके सिवाय इस आत्माका भी ज्ञान आवश्यक बताया जिसे शुद्ध होना है तथा जो अशुद्ध हो रहा है। आत्माकी अशुद्ध दशा स्वरूपप्रच्युतिरूप है और यह स्वस्वरूपको भलकर परपदार्थों में ममकार और अहंकार करनेके कारण हुई है। अतः इस अशुद्ध दशाका अन्त भी स्वरूपज्ञानसे ही हो सकता है । जब इस आत्माको यह तत्त्वज्ञानहोता है कि-"मेरा स्वरूप तो अनन्त चैतन्यमय वीतराग निर्मोह निष्कषाय शान्त निश्चल अप्रमत्त ज्ञानरूप है । इस स्वरूपको भलकर पर पदार्थोंमें ममकार तथा शरीरको अपना मानने के कारण रागद्वेष मोह कषाय प्रमाद मिथ्यात्व आदि विकासरूप मेरा परिणमन हो गया है और इन कषायोंकी ज्वालामें मेरा रूप समल और चंचल हो रहा है। यदि पर पदार्थों से ममकार और रागादिभावोंसे अहंकार हट जाय तथा आत्मपरविवेक हो जाय तो यह अशुद्ध दशा ये वासनाएँ अपने आप क्षीण हो जायँगी ।" तो यह विकारोंको क्षीण करता हुआ निर्विकार चैतन्यरूप होता जाता है। इसी शद्धिकरणको मोक्ष कहते हैं। यह मोक्ष जबतक शुद्ध आत्मस्वरूपका बोध न हो तबतक कैसे हो सकता है ? बद्धके तत्त्वज्ञानका प्रारम्भ दुःखसे होता है और उसकी समाप्ति दुःखनिवृत्तिमें होती है । पर महावीर बन्ध और मोक्षके आधारभूत आत्माको ही मूलतः तत्त्वज्ञानका आधार बनाते हैं। बुद्धको आत्मा शब्दसे ही चिढ है। वे समझते है कि आत्मा अर्थात् उपनिषद्वादियोंका नित्य आत्मा । और नित्य आत्मामें स्नेह होनेके कारण स्वबुद्धि और दूसरे पदार्थों में परबुद्धि होने लगती है । स्व-पर विभागसे रागद्वेष और रागद्वेषसे यह संसार बन जाता है। अतः सर्वानर्थमल यह आत्मदृष्टि है। पर वे इस ओर ध्यान नहीं देते कि 'आत्मा' की नित्यता या अनित्यता राग और विरागका कारण नहीं है। राग और विराग तो स्वरूपानवबोध और स्वरूपबोधसे होते हैं। रागका कारणपर पदार्थोंमें ममकार करना है। जब इस आत्माको समझाया जायगा कि "मुर्ख, तेरा स्वरूप तो निर्विकार अखण्ड चैतन्य है। तेरा इन स्त्री-पुत्र शरीरादिमें ममत्व करना विभाव है. स्वभाव नहीं।" तब यह सहज ही अपने निर्विकार सहज स्वभावकी ओर दृष्टि डालेगा और इसी विवेक दष्टि या सम्यग्दर्शनसे पर पदार्थोंसे रागद्वेष हटाकर स्वरूपमें लीन होने लगेगा । इसीके कारण आस्रव रुकते हैं और चित्त निरास्रव होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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