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________________ १८२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ प्रणम्य मोक्षप्रदमस्तदोषं प्रकृष्टपुण्यप्रभवं जिनेन्द्रम् । वक्ष्येऽत्र भव्यप्रतिबोधनार्थमाराधनासत्सुकथाप्रबन्धः ॥" ८९वीं कथाके अनन्तर "जयसिंहदेवराज्ये" प्रशस्ति लिखकर ग्रन्थ समाप्त कर दिया है। इसके अनन्तर भी कुछ कथाएँ लिखीं हैं । और अन्तमें 'सुकोमलैः सर्वसुखावबोधः" श्लोक तथा "इति भट्टारकप्रभाचन्द्रकृतः कथाकोशः समाप्तः" यह पुष्पिकालेख है। इस तरह इसमें दो स्थलोंपर ग्रन्थसमाप्तिको सूचना है जो खासतौरसे विचारणीय है। हो सकता है कि प्रभाचन्द्र ने प्रारम्भकी ८९ कथाएँ ही बनाई हों और बादकी कथाएँ किसी दूसरे भट्टारकप्रभाचन्द्रने । अथवा लेखकने भूलसे ८९वीं कथाके बाद ही ग्रन्थसमाप्तिसूचक पुष्पिकालेख लिख दिया हो। इसको खासतौरसे जाँचे बिना अभी विशेष कुछ कहना शक्य नहीं है। मेरे विचारसे प्रभाचन्द्रने तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण और प्रवचनसारसरोजभास्कर भोजदेवके राज्यसे पहिले अपनी प्रारम्भिक अवस्थामें बनाए होंगे यही कारण है कि उनमें भोजदेवराज्ये' या 'जयसिंहदेवराज्ये' कोई प्रशस्ति नहीं पाई जाती और न उन ग्रन्थोंमें प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिका उल्लेख ही पाया जाता है । इस तरह हम प्रभाचन्द्रकी ग्रन्थरचनाका क्रम इस प्रकार समझते हैं-तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण, प्रवचनसारसरोजभास्कर, 'प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, शब्दाम्भोजभास्कर, महापुराण टिप्पण और गद्यकथाकोश । श्रीमान् प्रेमीजीने २रत्नकरण्डटीका, समाधितन्त्रटीका क्रियाकलापटीका, आत्मानुशासनतिलका तेषां धर्मकथाप्रपञ्च रचनास्वाराधना संस्थिता। स्थेयात् कर्मविशुद्धिहेतुरमला चन्द्रार्कतारावधि ।। १ ।। सुकोमल: सर्वसुखावबोधः पदैः प्रभाचन्द्र कृतः प्रबन्धः । कल्याणकालेऽथ जिनेश्वराणां सुरेन्द्रदन्तीव विराजतेऽसौ ।। २ ॥ श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपञ्चपरमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमलकलङ्गेन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन आराधनासत्कथाप्रबन्धः कृतः ।" १. योगसूत्रपर भोजदेवकी राजमार्तण्ड नामक टीका पाई जाती है । संभव है प्रमेयकमळमार्तण्ड और राज मार्तण्ड नाम परस्पर प्रभावित हों। २. पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने रत्नकरण्डश्रावकाचारकी प्रस्तावनामें रत्नकरण्डश्रावकाचारकी टीका और समाधितन्त्रटीकाको एकही प्रभाचन्द्र द्वारा रचित सिद्ध किया है। जो ठीक है। पर आपने इन प्रभाचन्द्रको प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके रचयिता तर्कग्रन्थकार प्रभाचन्द्रसे भिन्न सिद्ध करनेका जो प्रयत्न किया है वह वस्तुतः दृढ़ प्रमाणोंपर अवलम्बित नहीं है। आपके मुख्यप्रमाण हैं कि-'प्रभाचन्द्रका आदिपुराणकारने स्मरण किया है इसलिए ये ईसाकी नवमशताब्दीके विद्वान् है, और इस टीकामें यशस्तिलकचम्पू ( ई० ९५९), वसुनन्दिश्रावकाचार ( अनुमानतः वि० की १३वीं शताब्दीका पूर्व भाग ) तथा पद्मनन्दि उपासकाचार (अनुमानतः वि० सं० १९८०) के श्लोक उद्धत पाए जाते हैं, इसलिए यह टीका प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके रचयिता प्रभाचन्द्रकी नहीं हो सकती।" इनके विषयमें मेरा यह वक्तव्य है कि-जब प्रभाचन्द्रका समय अन्य अनेक पुष्ट प्रमाणोंसे ईसाकी ग्यारहवीं शताब्दी सिद्ध होता है तब यदि ये टोकाएँ भी उन्हीं प्रभाचन्द्रकी ही हों तो भी इसमें यशस्तिलकचम्पू और नीतिवाक्यामृतके वाक्योंका उद्धृत होना अस्वाभाविक एवं अनैतिहासिक नहीं है। वसुनन्दि और पद्मनन्दिका समय भी विक्रमकी १२ वी और तेरहवीं सदी अनुमानमात्र है, कोई दृढ़ प्रमाण इसके साधक नहीं दिए गए हैं । पद्मनन्दि शुभचन्द्रके शिष्य थे यह बात पद्मनन्दिके ग्रन्थसे तो नहीं मालम होती। वसुनन्दिकी 'पडिगह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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