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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १८१ इसे न्यायकुमुदचन्द्रादिके रचयिता प्रभाचन्द्र की कृति सिद्ध करनेके लिए पर्याप्त हैं । अवतरण - ( गा० २।१० ) "नाशोत्पादौ समं यद्वन्नामोन्नासौ तुलान्तयोः " ( गा० २२८ ) " स्वोपात्तकर्मवशाद्भवाद् भवान्तरावाप्तिः संसार:" इनमें दूसरा अवतरण राजवार्तिकका तथा प्रथम किसी बौद्ध ग्रन्थका है । ये दोनों अवतरण प्रमेय - कमल और न्यायकुमुद० में भी पाए जाते हैं । इस व्याख्याकी दार्शनिक शैलीके नमूने ( गा० २।१३ ) " यदि हि द्रव्यं स्वयं सदात्मकं न स्यात् तदा स्वयमसदात्मकं सत्तातः पृथग्वा ? तत्राद्यः पक्षो न भवति; यदि सत् सद्रूपं द्रव्यं तदा असद्रूपं ध्रुवं निश्चयेन न तं तत् भवति । कथं केन प्रकारेण द्रव्यं खरविषाणवत् । हवदिपुणो अण्णं वा । अथ सत्तातः पुनरन्यद्वा पृथग्भूतं द्रव्यं भवति तदा अतः पृथग्भूतस्यापि सत्त्वे सत्ताकल्पना व्यर्था । सत्तासम्बन्धात्सत्त्वे चान्योन्याश्रयः सिद्धे हि तत्सत्त्वे सत्तासम्बन्धसिद्धिः तस्याञ्च सम्बन्धसिद्धौ सत्यां तत्सत्त्व सिद्धिरिति । तत्सत्त्वसिद्धिमन्तरेणापि सत्तासम्बन्धे खपुष्पादेरपि तत्प्रसङ्गः । तस्मात् द्रव्यं स्वयं सत्ता स्वयमेव सदभ्युपगन्तव्यम् ।" ( गा० २।१६ ) तथाहि - द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रवत्तांस्तान् गुणपर्यायान् गुणपर्यायैर्वा द्रोष्यते द्रुतं वा द्रव्यमिति । गम्यते उपलभ्यते द्रव्यमनेनेति गुणः । द्रव्यं वा द्रव्यान्तरात् येन विशिष्यते स गुणः । इत्येतस्मादर्थं विशेषात् यद् द्रव्यस्य गुणरूपे गुणरूपेण गुणस्य वा द्रव्यरूपेणाभवनं एसो एष हि अतद्भावः ।" इन गाथाओंकी अमृतचन्द्रीय और जयसेनीय टीकाओंसे इस टीकाकी तुलना करनेपर इसकी दार्शनिकप्रसूतता अपने आप झलक मारती है। इस टीकाका जयसेनीयटीकापर प्रभाव है और जयसेनीयटीकासे यह निश्चय ही पूर्वकालीन है । अमृतचन्द्राचार्यने प्रवचनसारकी जिन ३६ गाथाओंकी व्याख्या नहीं की है प्रायः वे गाथाएँ प्रवनसारसरोजभास्करमें यथास्थान व्याख्यात हैं । जयसेधीय टीकामें प्रभाचन्द्रका अनुसरण करते हुए इन गाथाओंकी व्याख्या की गई है । हाँ, जयसेनीयटीकामें दो-तीन गाथाएँ अति रिक्त भी हैं। इस टीकाका लक्ष्य गाथाओंका संक्षेपसे खुलासा करना । परन्तु प्रभाचन्द्र प्रारम्भ से ही दर्शनशास्त्र के विशिष्ट अभ्यासी रहे हैं इसलिए जहाँ खास अवसर आया वहाँ उन्होंने संक्षेपसे दार्शनिक मुद्दोंका भी निर्देश किया है । प्रो० ए० एन० उपाध्येने प्रवचनसारकी भूमिकामें भावत्रिभंगीकार श्रुतमुनिके 'सारत्रयनिपुण प्रभाचन्द्र' के उल्लेखसे प्रवचनसारसरोजभास्करके कर्त्ताका समय १४वीं सदीका प्रारम्भिक भाग सूचित किया है | परन्तु यह संभावना किसी दृढ़ आधारसे नहीं की गई है। जयसेनीय टीकापर इसका प्रभाव होनेसे ये उनसे प्राक्कालीन तो हैं ही । आ० जयसेन अपनी टीकामें ( पृ० २९ ) केवलिकवलाहारके खंडनका उपसंहार करते हुए लिखते हैं कि - " अन्येपि पिण्डशुद्धिकथिता बहवो दोषाः ते चान्यत्र तर्कशास्त्रे ज्ञातव्या अत्र चाध्यात्मग्रन्थत्वान्नोच्यन्ते ।" सम्भव है यहाँ तर्कशास्त्रसे प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिको विवक्षा हो । अस्तु, मुझे तो यह संक्षिप्त पर विशद टीका प्रभाचन्द्राचार्यकी प्रारम्भिककृति मालूम होती है । गद्यकथाकोश - यह ग्रन्थ भी इन्हीं प्रभाचन्द्रका मालूम होता है । इसकी प्रतिमें ८९वीं कथाके बाद "श्रीजयसिंहदेवराज्ये" "प्रशस्ति है । इसके प्रशस्ति श्लोकोंका प्रभाचन्द्रकृत न्यायकुमुदचन्द्र आदिके प्रशस्तिश्लोकोंसे पूरा-पूरा सादृश्य है । इसका मंगलश्लोक यह है १. न्यायकुमुदचन्द्र प्रथम भागकी प्रस्तावना, पृ० १२२ “राराध्य चतुर्विधामनुपमामाराधनां निर्मलाम् । प्राप्तं सर्वसुखास्पदं निरुपमं स्वर्गापवर्गप्रदा ( ? ) । Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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