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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : १८३ आदि ग्रन्थोंकी भी प्रभाचन्द्रकृत होनेकी संभावना की है, वह खास तौरसे विचारणीय है। मुच्चट्ठाणं' गाथा स्वयं उन्हींकी बनाई है या अन्य किसी आचार्यकी यह भी अभी निश्चित नहीं है। पद्मनन्दिश्रावकाचारके 'अध्रुवाशरणे' आदि श्लोक भी रत्नकरण्डटीकामें पद्मनन्दिका नाम लेकर उद्धृत नहीं है और न इन श्लोकोंके पहिले 'उक्तं च, तथा चोक्तम्' आदि कोई पद ही दिया गया है जिससे इन्हें उद्धत हो माना जाय । तात्पर्य यह कि मुख्तार सा० ने इन टीकाओंके प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकृत न होने में जो प्रमाण दिए है वे दढ़ नहीं हैं। रत्नकरण्डटीका तथा समाधितन्त्रटीकामें प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका एक साथ विशिष्टशैलीसे उल्लेख होना इसकी सूचना करता है कि ये टीकाएँ भी प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकी ही होनी चाहिए। वे उल्लेख इस प्रकार है 'तदलमतिप्रसङ्गेन प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे प्रपञ्चतः प्ररूपणात्"-रत्नक० टी०, पृ०६। "यः पुनर्योगसांख्यर्मक्तौ तत्प्रच्युतिरात्मनोऽभ्युपगता ते प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च मोक्षविचारे विस्तरतः प्रत्याख्याताः ।"-समाधितन्त्रटी०, पृ० १५ । इन दोनों अवतरणोंकी प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्करके निम्नलिखित अवतरणसे तुलना करनेपर स्पष्ट मालम हो जाता है कि शब्दाम्भोजभास्करके कर्त्ताने ही उक्त टीकाओंको बनाया है "तदात्मकत्वं चार्थस्य अध्यक्षतोऽनुमानादेश्च यथा सिद्धयति तथा प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्र च प्ररूपितमिह द्रष्टव्यम् ।'-शब्दाम्भोजभास्कर । प्रभाचन्द्रकृत गद्यकथाकोशमें पाई जानेवाली अञ्जनचोर आदिकी कथाओंसे रत्नकरण्डटीकागत कथाओंका अक्षरशः सादृश्य है। इति । ३. क्रियाकलापटीकाकी एक लिखित प्रति बम्बईके सरस्वती भवनमें है। उसके मंगल और प्रशस्ति श्लोक निम्नलिखित हैमंगल- "जिनेन्द्रमुन्मूलितकर्मबन्धं प्रणम्य सन्मार्गकृतस्वरूपम् ।। अनन्तबोधादिभवं गुणौघं क्रियाकलापं प्रकटं प्रवक्ष्ये ॥" प्रशस्ति- "वन्दे मोहतमोविनाशनपटुस्त्रैलोक्यदीपप्रभुः, संसृतिसमन्वितस्य निखिलस्नेहस्य संशोषकः । सिद्धान्तादिसमस्तशास्त्रकिरणः श्रीपद्मनन्दिप्रभुः, तच्छिष्यात्प्रकटार्थतां स्तुतिपदं प्राप्तं प्रभाचन्द्रतः॥१॥ यो रात्रौ दिवसे पृथि प्रयतां ( ? ) दोषा यतीनां कुतो प्योपाताः (?) प्रलये तु""रमलस्तेषां महादर्शितः। श्रीमद्गौतमनाभिभिर्गणधरैर्लोकत्रयोद्योतकैः, सव्यकृ ( ? ) सकलोऽप्यसौ यतिपतेर्जातः प्रभाचन्द्रतः ॥ २॥ यः ( यत् ) सर्वात्महितं न वर्णसहितं न स्पन्दितौष्ठद्वयम्, नो वाञ्छाकलितन्न दोषमलिनं न श्वासतुद्व ( रुद्ध ) क्रमम् । शान्तामर्थविषयैः ( मर्षविषैः ) समं परशु ( पशु ) गणैराकणितं कर्णतः, तद्वत् सर्वविदः प्रणष्टविपदः पायादपूर्व वकः ॥ ३॥" इन प्रशस्तिश्लोकोंसे ज्ञात होता है कि जिन प्रभाचन्द्रने क्रियाकलापटीका रची है वे पद्मनन्दिसैद्धान्तिकके शिष्य थे । न्यायकूमदचन्द्र आदिके कर्ता प्रभाचन्द्र भी पद्मनन्दिसैद्धान्तिकके ही शिष्य थे, अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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