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________________ १८० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ आ० प्रभाचन्द्रने इस ग्रन्थको प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रकी रचनाके बाद बनाया है जैसा कि उनके निम्नलिखित वाक्यसे सूचित होता है "तदात्मकत्वं चार्थस्य अध्यक्षतोऽनुमानादेश्च यथा सिद्धय ति तथा प्रपञ्चतः प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च प्ररूपितमिह द्रष्टव्यम् ।" प्रभाचन्द्र अपने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ३२९ ) में प्रमेयकमलमार्तण्ड ग्रन्थ देखनेका अनुरोध इसी तरहके शब्दोंमें करते हैं-"एतच्च प्रमेयकमलमार्तण्डे सप्रपञ्चं प्रपञ्चितमिह द्रष्टव्यम।" व्याकरण जैसे शुष्क शब्द विषयक इस ग्रन्थमें प्रभाचन्द्रकी प्रसन्न लेखनीसे प्रसत दर्शनशास्त्रकी क्वचित अर्थप्रधान चर्चा इस ग्रन्थ के गौरवको असाधारणतया बढ़ा रही है। रसमें विधिविचार, कारकविचार, लिंगविचार जैसे अनूठे प्रकरण हैं जो इस ग्रन्थको किसी भी दर्शनग्रन्थकी कोटिमें रख सकते हैं। इसमें समन्तभद्रके युक्त्यनुशासन तथा अन्य अनेक आचार्योंके पद्योंको प्रमाण रूपसे उदधत किया है। पृ० ९१ में विश्वदृश्वाऽस्य पुत्रो जनिता प्रयोगका हृदयग्राही व्याख्यान किया है। इस तरह क्या भाषा, क्या विषय और क्या प्रसन्नशैली, हर एक दृष्टिसे प्रभाचन्द्रका निर्मल और प्रौढ़ पाण्डित्य इस ग्रन्थमें उदातभावसे निहित है। प्रवचनसारसरोजभास्कर---यह प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलको विकसित करनेके लिए मार्तण्ड बनानेके पहिले प्रवचनसारसरोजके विकासार्थ भास्करका उदय किया हो तो कोई अनहोनी बात न होकर अधिक संभव और निश्चित बात मालूम होती है । ( प्रमेय ) कमलमार्तण्ड, (न्याय ) कुमुदचन्द्र, ( शब्द ) अम्भोजभास्कर जैसे सुन्दर नामोंकी कल्पिका प्रभाचन्द्रीय बुद्धिने हो (प्रवचनसार ) सरोजभास्करका उदय किया है। इस ग्रन्थको संवत् १५५५ की लिखी हुई जीर्ण प्रति हमारे सामने है। यह प्रति ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, बम्बईकी है । इसका परिचय संक्षेपमें इस प्रकार है पत्रसंख्या ५३, श्लोकसंख्या १७४६, साइज १३४६ । एक पत्रमें १२ पंक्तियाँ तथा एक पंक्तिमें ४२-४३ अक्षर हैं । लिखावट अच्छी और शुद्ध प्राय है । प्रारम्भ "ओं नमः सर्वज्ञाय शिष्याशयः । वीरं प्रवचनसारं निखिलार्थं निर्मलजनानन्दम् । वक्ष्ये सुखावबोधं निर्वाणपदं प्रणम्याप्तम् ।। श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः सकललोकोपकारकं मोक्षमार्गमध्ययनरुचिविनेयाशयवशेनोपदर्शयितुकामो निर्विघ्नः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषन्निष्टदेवताविशेषं शास्त्रस्यादौ नमस्कुर्वन्नाह ।। छ ।। एस सुरासुर"।" अन्त-"इति श्रीप्रभाचन्द्रदेवविरचिते प्रवचनसारसरोजभास्करे शभोपयोगाधिकारः समाप्तः ॥ छ । संवत् १५५५ वर्षे माघमासे शुक्लपक्षे पून्य( णि )मायां तिथौ गुरुवासरे गिरिपुरे व्या० पुरुषोत्तम लि० ग्रन्थसंख्या षट्चत्वारिंशदधिकानि सप्तदशशतानि ।। १७४६ ॥" मध्यको सन्धियोंका पुष्पिकालेख-"इति श्रीप्रभाचन्द्रदेवविरचिते प्रवचनसारसरोजभास्करे.." है। इस टीकामें जगह-जगह उद्धृत दार्शनिक अवतरण, दार्शनिक व्याख्यापद्धति एवं सरल प्रसन्नशैली है। पं० भुजबलोजी शास्त्रीके पत्रसे ज्ञात हआ है कि कारकलके मठमें भी इसकी प्रति है। इस प्रतिमें भी तीन अध्यायका न्यास है। प्रेमीजी सचित करते हैं कि बंबईके भवन में इसकी एक प्राचीन प्रति है उसमें चतुर्थ अध्यायके तीसरे पादके २११वें सूत्र तकका न्यास है, आगे नहीं है। हो सकता है कि यह प्रभाचन्द्रकी अन्तिम कृति ही हो और इसलिए पूर्ण न हो सकी हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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