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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १४९ पूज्यपाद और प्रभाचन्द्र-आ० देवनन्दिका अपर नाम पूज्यपाद था। ये विक्रमकी पांचवीं और छठी सदीके ख्यात आचार्य थे। आ० प्रभाचन्द्र ने पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिपर 'तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण नामकी लघुवृत्ति लिखी है। इसके सिवाय इन्होंने जैनेन्द्रव्याकरणपर शब्दाम्भोजभास्कर नामका न्यास लिखा है । पूज्यपादकी संस्कृत सिद्ध भक्तिसे 'सिद्धि : स्वात्मोपलब्धिः' पद भी न्यायकुमुदचन्द्र में प्रमाणरूपसे उद्धृत किया गया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमदचन्द्रमें जहाँ कहीं भी व्याकरणके सूत्रोंके उद्धरण देनेकी आवश्यकता हई है वहाँ प्रायः जैनेन्द्रव्याकरणके अभयनन्दिसम्मत सूत्रपाठसे ही सूत्र उद्धृत किए गए हैं। धनञ्जय और प्रभाचन्द्र-'संस्कृतसाहित्यका संक्षिप्त इतिहास' के लेखकद्वयने धनञ्जयका समय ई० १२वें शतकका मध्य निर्धारित किया है ( पृ० १७३ )। और अपने इस मतकी पुष्टिके लिए के० बी० पाठक महाशयका यह मत भो उद्धत किया है कि-"धनञ्जयने द्विसन्धानमहाकाव्यकी रचना ई० ११२३ और ११४० के मध्यमें की है।" डॉ० पाठक और उक्त इतिहासके लेखकद्वय अन्य कई जैन कवियोंके समय निर्धारणकी भाँति धनञ्जयके समयमें भी भ्रान्ति कर बैठे है । क्योंकि विचार करनेसे धनञ्जयका समय ईसाकी ८वीं सदीका अन्त और नवीका प्रारम्भिक भाग सिद्ध होता है-- १-जल्हण ( ई० द्वादशशतक) विरचित सूक्तिमक्तावलीमें राजशेखरके नामसे धनञ्जयकी प्रशंसामें निम्नलिखित पद्य उद्धृत है "द्विसन्धाने निपुणतां सतां चक्रे धनञ्जयः। यया जातं फलं तस्य स तां चक्रे धनञ्जयः ।।" इस पद्यमें राजशेखरने धनञ्जयके द्विसन्धानकाव्यका मनोमुग्धकर सरणिसे निर्देश किया है। संस्कृत साहित्यके इतिहासके लेखकद्वय लिखते हैं कि-'यह राजशेखर प्रबन्धकोशका कर्ता जैन राजशेखर है। यह राजशेखर ई० १३४८ में विद्यमान था ।" आश्चर्य है कि १२वीं शताब्दीके विद्वान् जल्हणके द्वारा विरचित ग्रन्थमें उल्लिखित होनेवाले राजशेखरको लेखकद्वय १४वीं शताब्दीका जैन राजशेखर बताते हैं । यह तो मोटी बात है कि १२वीं शताब्दीके जल्हणने १४वीं शताब्दीके जैन राजशेखरका उल्लेख न करके १०वीं शताब्दीके प्रसिद्ध काव्यमीमांसाकार राजशेखरका ही उल्लेख किया है । इस उल्लेखसे धनञ्जयका समय ९वीं शताब्दीके अन्तिम भागके बाद तो किसी भी तरह नहीं जाता। ई० ९६० में विरचित सोमदेवके यशस्तिलक चम्पूमें राजशेखरका उल्लेख हानेसे इनका समय करोब ई० ९१० ठहरता है। २-वादिराजसूरि अपने पार्श्वनाथचरित (पृ० ४ ) में धनञ्जयकी प्रशंसा करते हुए लिखते हैं-- ___ "अनेकभेदसन्धानाः खनन्तो हृदये मुहुः । बाणा धनञ्जयोन्मुक्ताः कर्णस्येव प्रियाः कथम् ।।" इस श्लिष्ट श्लोकमें 'अनेकभेदसन्धानाः' पदसे धनञ्जयके 'द्विसन्धानकाव्य' का उल्लेख बड़ी कुशलतासे किया गया है। वादिराजसूरिने पार्श्वनाथचरित ९४७ शक (ई. १०२५ ) में समाप्त किया था। अतः धनञ्जयका समय ई० १०वीं शताब्दीके बाद तो किसी भी तरह नहीं जा सकता। ३-आ० वीरसेनने अपनी धवलाटीका ( अमरावतीकी प्रति, पृ० ३८७ ) में धनञ्जयको अनेकार्थनाममालाका निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है१. देखो, अनेकान्त वर्ष १, पृ० १९७ । प्रेमीजी सूचित करते हैं कि इसकी प्रति बंबईके ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवनमें मौजूद है। २, देखो, धवलटीका प्रथम भागकी प्रस्तावना, पृ० ६२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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