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________________ १५० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ " हेतावेव प्रकारादौ व्यवच्छेदे विपर्यये । प्रादुर्भाव समाप्तौ च इतिशब्दं विदुर्बुधाः ॥” आ० वीरसेनने धवलाटोकाकी समाप्ति शक ७३८ ( ई० ८१६ ) में की थी। श्रीमान् प्रेमीजीने बनारस विलासको उत्थानिकामें लिखा है कि "ध्वन्यालोकके कर्त्ता आनन्दवर्धन, हरचरित्र के कर्त्ता रत्नाकर और जहणने धनञ्जयकी स्तुति की है ।" संस्कृत साहित्यके संक्षिप्त इतिहास में आनन्दवर्धनका समय ई० ८४०–७०, एवं रत्नाकरका समय ई० ८५० तक निर्धारित किया है । अतः धनञ्जयका समय ८वीं शताब्दीका उत्तरभाग और नवीं शताब्दोका पूर्वभाग सुनिश्चित होता । धनञ्जयने अपनी नाममालाके " प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । धनञ्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ॥" इस श्लोक में अकलङ्कदेवका नाम लिया है। अकलङ्कदेव ईसाको ८वीं सदीके आचार्य हैं अतः धनञ्जयका समय ८वीं सदीका उत्तरार्ध और नवींका पूर्वार्ध मानना सुसंगत हे । आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ( पृ० ४०२ ) में धनञ्जयके द्विसन्धानकाव्यका उल्लेख किया है । न्यायकुमुदचन्द्र में इसी स्थलपर द्विसन्धानकी जगह त्रिसन्धान नाम लिया गया है । रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्य और प्रभाचन्द्र - रविभद्रपादोपजीवि अनन्तवीर्याचार्यकी सिद्धिविनि व्याख्याता और मर्मज्ञ थे । प्रभाविवेचन किया था। प्रभाचन्द्र टीका समुपलब्ध है । ये अकलङ्कके प्रकरणोंके तलद्रष्टा, विवेचयिता, चन्द्र ने इनकी उक्तियोंसे ही दुरवगाह अकलङ्कवाङ्मयका सुष्ठु अभ्यास और अनन्तवीर्य के प्रति अपनी कृतज्ञताका भाव न्यायकुमुदचन्द्र में एकाधिक बार प्रदर्शित करते हैं । इनकी सिद्धिfafeterटीका अकलकवाङ्मयके टीकासाहित्यका शिरोरत्न है । उसमें सैकड़ों मतमतान्तरोंका उल्लेख करके उनका सविस्तर निरास किया गया । इस टीका में धर्मकीर्ति, अचंट धर्मोत्तर, प्रज्ञाकरगुप्त, आदि प्रसिद्ध प्रसिद्ध धर्मकीर्तिसाहित्यके व्याख्याकारोंके मत उनके ग्रन्थोंके लम्बे-लम्बे अवतरण देकर उद्धृत किए गए हैं। यह टीका प्रभाचन्द्र के ग्रन्थोंपर अपना विचित्र प्रभाव रखती है । शान्तिसूरिने अपनी जैनतर्क वार्तिकवृत्ति ( पृ० ९८ ) में 'एके अनन्तवीर्यादयः' पदसे संभवतः इन्हीं अनन्तवीर्यके मतका उल्लेख किया है । विद्यानन्द और प्रभाचन्द्र-आ० विद्यानन्दका जैनतार्किकों में अपना विशिष्ट स्थान है । इनकी श्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरोक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, युक्त्यनुशासनटीका आदि तार्किक कृतियाँ इनके अतुल तलस्पर्शी पाण्डित्य और सर्वतोमुख अध्ययनका पदे पदे अनुभव कराती हैं । इन्होंने अपने किसी भी ग्रन्थ में अपना समय आदि नहीं दिया है । आ० प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र दोनों ही प्रमुख ग्रन्थोंपर विद्यानन्दकी कृतियोंकी सुनिश्चित अमिट छाप है । प्रभाचन्द्रको विद्यानन्दके ग्रन्थोंका अनूठा अभ्यास था । उनकी शब्दरचना भी विद्यानन्दकी शब्दभंगीसे पूरी तरह प्रभावित है । प्रभाचन्द्र प्रमेयकमलमार्त्तण्ड के प्रथमपरिच्छेदके अन्तमें- "विद्यानन्दसमन्तभद्रगुणतो नित्यं मनोनन्दनम् " इस श्लोकांश में fresटरूपसे विद्यानन्दका नाम लिया है। प्रमेयकमलमार्त्तण्ड में पत्रपरीक्षा से पत्रका लक्षण तथा अन्य एक श्लोक भी उद्धृत किया गया है। अतः विद्यानन्दके ग्रन्थ प्रभाचन्द्र के लिए उपजीव्य निर्विवादरूपसे सिद्ध हो जाते हैं । Jain Education International आ० विद्यानन्द अपने आप्तपरीक्षा आदि ग्रन्थोंमें 'सत्यवाक्यार्थं सिद्धचै' 'सत्यवाक्याधिपाः' विशेषणसे तत्कालीन राजाका नाम भी प्रकारान्तरसे सूचित करते हैं। बाबू कामताप्रसादजी ( जैन सिद्धान्तभास्कर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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