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________________ १४८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ इस अनुष्टुप् श्लोकमें तत्त्वार्थशास्त्रादौ पद 'प्रोत्थानारम्भकाले' पदके अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है । ३२ अक्षरवाले इस संक्षिप्त श्लोकमे इससे अधिक की गुंजाइश ही नहीं है । 'मोक्षमार्गस्य नेतार' श्लोक वस्तुतः सर्वार्थसिद्धिका ही मंगलश्लोक है । यदि पूज्यपाद स्वयं भी इसे सूत्रकारकृत मानते होते तो उनके द्वारा उसका व्याख्यान सर्वार्थसिद्धि में अवश्य किया जाता । और जब समन्तभद्रने इसी श्लोकके ऊपर अपनी आप्तमीमांसा बनाई है, जैसा कि विद्यानन्दका उल्लेख ' हैं, तो समन्तभद्र कमसे कम पूज्यपाद के समकालीन तो सिद्ध होते ही हैं। पं० सुखलालजीका यह तर्क कि यदि समन्तभद्र पूज्यपादके प्राक्कालीन होते तो वे अपने इस युगप्रधान आचार्यकी आप्तमीमांसा जैसी अनूठी कृतिका उल्लेख किए बिना नहीं रहते" हृदयको स्वतन्त्र भावसे साधन बाधन नहीं । और जब विद्यानन्दके उल्लेखों के समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाके चौथे लगता है । यद्यपि ऐसे नकारात्मक प्रमाणोंसे किसी आचार्य के समयका होता फिर भी विचारको एक स्पष्ट कोटि तो उपस्थित हो ही जाती है प्रकाशमें इसका विचार करते हैं तब यह पर्याप्त पुष्ट मालूम होता है । परिच्छेदमें वर्णित “विरूपकार्यारम्भाय " आदि कारिकाओंके पूर्वपक्षोंकी समाक्षा करनेसे ज्ञात होता हं कि समन्तभद्रके सामने संभवतः दिग्नागके ग्रन्थ भी रहे हैं । बौद्धदर्शनकी इतनी स्पष्ट विचारधाराकी सम्भावना दिग्नागसे पहिले नहीं की जा सकती । बिन्दु अकृत विवरण में समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाकी " द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः" कारिकाके खंडन करनेवाले ३०-३५ श्लोक उद्धृत किए गए हैं। ये श्लोक दुर्वेक मिश्रकी हेतुबिन्दुटीकानुटीका लेखानुसार स्वयं अर्चंटने ही बनाए हैं । अर्चटका समय ९वीं सदी है । कुमारिलके मीमांसाश्लोकवार्तिक में समन्तभद्रकी "घटमौलिसुवर्णार्थी" कारिकासे समानता रखनेवाले निम्न श्लोक पाये जाते हैं " वर्धमानकभङ्गे च रुचकः क्रियते यदा । तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ॥ माथिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् ॥ स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्यनित्यता ।" - मी० श्लो०, पृ० ६१९ कुमारिका समय ईसाकी ७वीं सदी है । अतः समन्तभद्रकी उत्तरावधि सातवीं सदी मानी जा सकती है । पूर्वाधिका नियामक प्रमाण दिग्नागका समय होना चाहिए । इस तरह समन्तभद्रका समय ईसाकी ५वीं और सातवीं शताब्दीका मध्यभाग अधिक संभव है । यदि विद्यानन्दके उल्लेखमें ऐतिहासिक दृष्टि भी निविष्ट तो समन्तभद्रकी स्थिति पूज्यपादके बाद या समसमयमें होनी चाहिए । पूज्यपादके जैनेन्द्रव्याकरणके अभयनन्दिसम्मत प्राचीनसूत्रपाठ में "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य" सूत्र पाया जाता है। इस सूत्र में यदि इन्हो समन्तभद्रका निर्देश है तो इसका निर्वाह समन्तभद्रको पूज्यपादका समकालीनवृद्ध मानकर भी किया जा सकता है । Jain Education International १. आ० विद्यानन्द अष्टसहस्रीके मंगलश्लोक में भी लिखते हैं कि 'शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचराप्तमीमांसित कृतिरलक्रियते मयाऽस्य ॥ अर्थात् — शास्त्र तत्त्वार्थशास्त्र के अवतार - अवतरणिका - भूमिका के समय रची गई स्तुतिमें वर्णित आप्तकी मीमांसा करनेवाले आप्तमीमांसा नामक ग्रन्थका व्याख्यान किया जाता है । यहाँ 'शास्त्रावताररचितस्तुति' पद आप्तपरीक्षा के 'प्रोत्थानारम्भकाल' पदका समानार्थक है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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