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________________ १३८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ भी 'तोयालोचन, तोयविकल्प, दृष्टतज्जातीयसंस्कारोबोध, स्मरण, 'तज्जातीयं चेदम्' इत्याकारकपरामर्श इत्यादि बताया है। __न्यायमंजरी ( पृ० ६६ ) में इसी प्रकरणमें शङ्का की है कि-'प्रथम आलोचनज्ञानका फल उपादानादिबुद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि उसमें कई क्षणोंका व्यवधान पड़ जाता है ? इसका उत्तर देते हुए मंजरीकारने 'आचार्याः' शब्द लिखकर 'उपादेयताज्ञानको उपादानबुद्धि कहते हैं। इस मतका उल्लेख किया है। इस 'आचार्याः' पद पर भी म० म० गङ्गाधर शास्त्रीने 'न्यायवात्तिक-तात्पर्यटीकायां वाचस्पतिमिश्राः' ऐसा टिप्पण किया है। न्यायमञ्जरीके द्वितीय संस्करणके सम्पादक पं० सूर्यनारायणजी न्यायाचार्यने भी उन्हींका अनुसरण करके उसे बड़े टाइपमें हेडिंग देकर छपाया है। मंजरीकारने इस मतके बाद भी एक व्याख्याताका मत दिया है । जो इस परामर्शात्मक उपादेयताज्ञानको नहीं मानता। यहाँ भी यह विचारणीय है कि-यह मत स्वयं वाचस्पतिका है या उनके पूर्ववर्ती उनके गुरुका ? यद्यपि यहाँ उन्होंने अपने गुरुका नाम नहीं लिया है, तथापि जब व्योमवती' जैसी प्रशस्तपादकी प्राचीन टीका (१० ५६१ ) में इसका स्पष्ट समर्थन है, तब इस मतकी परम्परा भी प्राचीन ही मानना होगी और 'आचार्याः' पदसे वाचस्पति न लिए जाकर व्योमशिव जैसे कोई प्राचीन आचार्य लेना होंगे । मालम होता है म०म० गङ्गाधर शास्त्रीने "जातञ्च सम्बद्धं चेत्येकः कालः" इस वचनको वाचस्पतिका मानने के कारण ही उक्त दो स्थलोंमें 'आचार्याः' पदपर 'वाचस्पतिमिश्रा' ऐसी टिप्पणी कर दी है, जिसकी परम्परा चलती रही । हाँ, म० म० गोपीनाथ कविराजने अवश्य ही उसे सन्देह कोटिमें रखा है। भट्ट जयन्तकी समयावधि-जयन्त मंजरीमें धर्मकीर्तिके मतकी समालोचनाके साथ ही साथ उनके टीकाकार धर्मोत्तरकी आदिवाक्यकी चर्चाको स्थान देते हैं। तथा प्रज्ञाकरगप्तके 'एकमेवेदं हर्षविषादाद्यनेकाकारविवर्त पश्यामः तत्र यथेष्टं संज्ञाः क्रियन्ताम्' ( भिक्षु राहुलजीकी वार्तिकालंकारकी प्रेसकॉपी, पृ० ४४९ ) इस वचनका खंडन करते हैं, (न्यायमंजरी, पृ० ७४ )। भिक्षु राहुलजीने टिबेटियन गुरुपरम्पराके अनुसार धर्मकीर्तिका समय ई० ६२५, प्रज्ञाकरगुप्तका ७००, धर्मोत्तर और रविगुप्तका ७२५ ईस्वी लिखा है। जयन्तने एक जगह रविगप्तका भी नाम लिया है। अतः जयन्तकी पूर्वावधि ७६० A. D. तथा उत्तरावधि ८४० A.D. होनी चाहिए। क्योंकि वाचस्पतिका न्यायसूचीनिबन्ध ८४१ A. D. में बनाया गया है, इसके पहिले भी वे ब्रह्म सिद्धि, तत्त्वबिन्दु और तात्पर्यटीका लिख चुके है । संभव है कि वाचस्पतिने अपनी आद्यकृति न्यायकणिका ८१५ ई० के आसपास लिखी हो । इस न्यायकणिकामें जयन्तकी न्यायमंजरीका उल्लेख होनेसे जयन्तकी उत्तरावधि ८४० A. D. ही मानना समुचित ज्ञात होता है। यह समय जयन्तके पुत्र अभिनन्द द्वारा दी गई जयन्तकी पूर्वजावलीसे भी संगत बैठता है । अभिनन्द अपने कादम्बरीकथासारमें लिखते हैं कि "भारद्वाज कुलमें शक्ति नामका गौड़ ब्राह्मण था। उसका पुत्र मित्र, मित्रका पुत्र शक्तिस्वामी हआ। यह शक्तिस्वामी कर्कोटवंशके राजा मुक्तापीड ललितादित्यके मंत्री थे। शक्तिस्वामीके पुत्र कल्याणस्वामी, कल्याणस्वामीके पुत्र चन्द्र तथा चन्द्रके पुत्र जयन्त हुए, जो नववृत्तिकारके नामसे मशहूर थे । जयन्तके अभिनन्द नामका पुत्र हुआ।" १. "द्रव्या दिजातीयस्य पूर्व सुखदुःखसाधनत्वोपलब्धेः तज्ज्ञानानन्तरं यद्यत् द्रव्यादिजातीयं तत्तत्सुखसाधन मित्यविनाभावस्मरणम्, तथा चेदं द्रव्यादिजातीयमिति परामर्शज्ञानम्, तस्मात् सुखसाधनमिति विनिश्चयः तत उपादेयज्ञानम्..."."-प्रश० व्यो०, पृ० ५६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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