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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : १३७ में उद्धृत 'यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः' इस पद्यको टिप्पणी में 'भामती' टीकाका लिख दिया है। पर वस्तुतः यह पद्य वाक्यपदीय (१-३४) का है और न्यायमञ्जरोकी तरह भामतो टीकामें भी उद्धत ही है, मलका नहीं है। न्यायसूत्रके प्रत्यक्ष-लक्षणसूत्र ( १-१-४) की व्याख्यामें वाचस्पति मिश्र लिखते हैं कि-व्यवसायात्मक' पदसे सविकल्पक प्रत्यक्षका ग्रहण करना चाहिये तथा 'अव्यपदेश्य' पदसे निर्विकल्पक ज्ञानका। संशयज्ञानका निराकरण तो 'अव्यभिचारी' पदसे हो ही जाता है, इसलिये संशयज्ञानका निराकरण करना 'व्यवसायात्मक' पदका मुख्य कार्य नहीं है। यह बात मैं 'गुरून्नीत मार्ग' का अनुगमन करके कह रहा हूँ। इसी तरह कोई व्याख्याकार 'अयमश्वः' इत्यादि शब्दसंसृष्ट ज्ञानको उभयजज्ञान कहकर उसकी प्रत्यक्षताका निराकरण करनेके लिये अव्यपदेश्य पदकी सार्थकता बताते हैं। वाचस्पति 'अयमश्वः' इस ज्ञानको उभयजज्ञान न मानकर ऐन्द्रियक कहते हैं । और वह भी अपने गुरुके द्वारा उपदिष्ट इस गाथाके आधारपर शब्दजत्वेन शाब्दञ्चेत् प्रत्यक्षं चाक्षजत्वतः। स्पष्टग्रहरूपत्वात् युक्तमैन्द्रियकं हि तत् ॥ इसलिये वे 'अव्यपदेश्य' पदका प्रयोजन निर्विकल्पका संग्रह करना ही बतलाते हैं । न्यायमञ्जरी ( पृ० ७८ ) में 'उभयजज्ञानका व्यवच्छेद करना अव्यपदेश्यपदका कार्य है' इस मतका 'आचार्याः' इस शब्दके साथ उल्लेख किया गया है। उसपर व्याख्याकारकी अनुपपत्ति दिखाकर न्यायमजरीकारने उभयजज्ञानका खण्डन किया है। म० म० गङ्गाधर शास्त्रीने इस 'आचार्याः' पदके नीचे 'तात्पर्यटोकायां वाचस्पतिमिश्राः' यह टिप्पणी की है। यहाँ यह विचारणीय है कि-यह मत वाचस्पति मिश्रका है या अन्य किसी पूर्वाचार्यका ? तात्पर्य-टीका ( पृ० १४८ ) में तो स्पष्ट ही उभयजज्ञान नहीं मानकर उसे ऐन्द्रियक कहा है। इसलिये वह मत वाचस्पतिका तो नहीं है। व्योमवती' टीका (पृ० ५५५) में उभयजज्ञानका स्पष्ट समर्थन है, अतः यह मत व्योमशिवाचार्यका हो सकता है। व्योमवतीमें न केवल उभयजज्ञानका समर्थन ही है किन्तु उसका व्यवच्छेद भी अव्यपदेश्य पदसे किया है । हाँ, उसपर जो व्याख्याकारकी अनुपपत्ति है वह कदाचित् वाचस्पतिकी तरफ लग सकती है; सो भी ठीक नहीं; क्योंकि वाचस्पतिने अपने गुरुकी जिस गाथाके अनुसार उभयजज्ञानको ऐन्द्रियक माना है, उससे साफ मालम होता है कि वाचस्पतिके गरुके सामने उभयजज्ञ माननेवाले आचार्य ( सम्भवतः व्योमशिवाचार्य) की परम्परा थी, जिसका खण्डन वाचस्पतिके गुरुने किया। और जिस खण्डनको वाचस्पतिने अपने गुरुकी गाथाका प्रमाण देकर तात्पर्य-टीकामें स्थान दिया है । ____ इसी तरह तात्पर्य टीकामें ( पृ० १०२) 'यदा ज्ञानं तदा हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः फलम्' इस भाष्यका व्याख्यान करते हुए वाचस्पति मिश्रने उपादेयताज्ञानको 'उपादान' पदसे लिया है और उसका क्रम १. "न, इन्द्रियसहकारिणा शब्देन यज्जन्यते तस्य व्यवच्छेदार्थत्वात, तथा ह्यकृतसमयो रूपं पश्यन्नपि चक्षषा रूपमिति न जानीते रूपमितिशब्दोच्चारणानन्तरं प्रतिपद्यत इत्युभयजं ज्ञानम्; ननु च शब्देन्द्रिययोरेकस्मिन् काले व्यापाराऽसम्भवादयुक्तमेतत् । तथाहि-मनसाऽधिष्ठितं न श्रोत्रं शब्दं गृह्णाति पुनः क्रियाक्रमेण चक्षुषा सम्बन्धे सति रूपग्रहणम् । न च शब्दज्ञानस्यैतावत्कालमवस्थानं सम्भवतीति कथमुभयजं ज्ञानम् ? अत्रैका श्रोत्रसम्बद्धे मनसि क्रियोत्पन्ना विभागमारभते "ततः स्वज्ञानसहायशब्दसहकारिणा चक्षुषा रूपज्ञानमुत्पद्यते इत्युभयजं ज्ञानम् । यदि वाभवत्येवोभयजं ज्ञानम्"-प्रश० व्यो०, पृ० ५५५ । ४-१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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