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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १३९ काश्मीरके कर्कोट वंशीय राजा मक्तापीड ललितादित्यका राज्य काल ७३३ से ७६८ A. D तक रहा है । शक्तिस्वामीके, जो अपनी प्रौढ़ अवस्थामें मन्त्री होंगे, अपने मन्त्रित्वकालके पहिले ही ई० ७२० में कल्याणस्वामी उत्पन्न हो चुके होंगे। इसके अनन्तर यदि प्रत्येक पीढ़ीका समय २० वर्ष भी मान लिया जाय तो कल्याणस्वामीके ईस्वी सन् ७४० में चन्द्र, चन्द्र के ई० ७६० में जयन्त उत्पन्न हुए और उन्होंने ईस्वी ८०० तकमें अपनी 'न्यायमंजरी' बनाई होगी। इसलिए वाचस्पतिके समयमें जयन्त वद्ध होंगे और वाचस्पति इन्हें आदरकी दष्टिसे देखते होंगे। यही कारण है कि उन्होंने अपनी आद्यकृतिमें न्यायमंजरीकारका स्मरण किया है। जयन्तके इस समयका समर्थक एक प्रबल प्रमाण यह है कि-हरिभद्रसूरिने अपने षडदर्शनसमुच्चय (श्लो० २० ) में न्यायमंजरी (विजयानगरं सं०, पृ० १२९ ) के "गम्भीरगजितारम्भनिभिन्नगिरिगह्वराः । रोलम्बगवलव्यालतमालमलिनत्विषः।। त्वङ्गत्तडिल्लतासङ्गपिशङ्गोत्तुङ्गविग्रहाः। वृष्टि व्यभिचरन्तीह नैवंप्रायाः पयोमुचः ॥” । इन दो श्लोकोंके द्वितीय पादोंको जैसाका तैसा शामिल कर लिया है । प्रसिद्ध इतिवृत्तज्ञ मुनि जिनविजयजीने "जैन साहित्यसंशोधक' ( भाग १ अंक १, ) में अनेक प्रमाणोंसे, खासकर उद्योतनसूरिकी कुवलयमाला कथामें हरिभद्र का गुरुरूपसे उल्लेख होनेके कारण हरिभद्रका समय ई० ७०० से ७७० तक निर्धारित किया है । कुवलयमाला कथाकी समाप्ति शक ७०० ( ई० ७७८ ) में हुई थी। मेरा इस विषयमें इतना संशोधन है कि उस समयकी आयुःस्थिति देखते हुए हरिभद्र की निर्धारित आयु स्वल्प मालम होती है। उनके समयकी उत्तरावधि ई०८१० तक माननेसे वे न्यायमंजरीको देख सकेंगे। हरिभद्र जैसे सैकड़ों प्रकरणोंके रचयिता विद्वानके लिए १०० वर्ष जीना अस्वाभाविक नहीं हो सकता । अतः ई० ७१० से ८१० तक समयवाले हरिभद्रसूरिके द्वारा न्यायमंजरीके श्लोकोंका अपने ग्रन्थमें शामिल किया जाना जयन्तके ७६० से ८४० ई० तकके समयका प्रबल साधकप्रमाण है। आ० प्रभाचन्द्र ने वात्सायनभाष्य एवं न्यायवार्तिकको अपेक्षा जयन्तको न्यायमञ्जरी एवं न्यायकलिकाका ही अधिक परिशीलन एवं समुचित उपयोग किया है । षोडशपदार्थ के निरूपणमें जयन्तकी न्यायमंजरीके ही शब्द अपनी आभा दिखाते हैं । प्रभाचन्द्रको न्यायमंजरी स्वभ्यस्त थी। वे कहीं-कहीं मंजरीके ही शब्दोंको 'तथा चाह भाष्यकारः' लिखकर उद्धृत करते हैं। भूतचैतन्यवादके पूर्वपक्षमें न्यायमंजरीमें 'अपि च' करके उद्धत की गई १७ कारिकाएँ न्यायकुमुदचन्द्र में भी ज्योंकी त्यों उद्धृत की गई हैं। जयन्तके कारकसाकल्यका सर्वप्रथम खण्डन । प्रभाचन्द्र ने ही किया है। न्यायमञ्जरीकी निम्नलिखित तीन कारिकाएँ भी न्यायकुमुदचन्द्रमें उद्धृत की गई हैं। ( न्यायकुमुद० पृ० ३३६ ) "ज्ञातं सम्यगसम्यग्वा यन्मोक्षाय भवाय वा । तत्प्रमेयमिहाभीष्टं न प्रमाणार्थमात्रकम् ।।" [ न्यायमं० पृ० ४४७] ( न्यायकुमुद० पृ० ४९१ ) "भूयोऽवयवसमान्ययोगो यद्यपि मन्यते । सादृश्यं तस्य तु ज्ञप्तिः गृहीते प्रतियोगिनि ॥ [ न्यायमं० पृ० १४६ ] ( न्यायकुमुद० पृ० ५११ ) “नन्वस्त्येव गृहद्वारवर्तिनः संगतिग्रहः । भावेनाभावसिद्धौ तु कथमेतद्भविष्यति ॥" [ न्यायमं० पृ० ३८ ] १. देखो, संस्कृतसाहित्यका इतिहास, परिशिष्ट ( ख ), पृ० १५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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